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आश्वासः
मूलाराधना १५०५ ।
क्षपकप्रोत्साहनार्थमाह
मूलारा-धीरा, उपसर्गायुपनिपातेऽपि अषियलधृतयः । उवणमित्ता आश्रित्य मार्ग । णिरावयक्खा प्रत्याख्यातप्रहणनिरपेाःसंतः । णिसज्जति निशेरसे विशुद्धयंतीत्यर्थः । वक्तंच
पुरुषैः कथितं धारमार्ग सद्धिनिषेवितं ॥
निरपेक्षा:श्रिता धन्याः संस्तरस्था निशेरते ।। अर्थ-महान उपसर्ग और परिषहोंसे पीडित होनेपर भी जिनका धैर्य निश्चल रहता है ऐसे धीर पुरुषोंने इस मुनिग्रतका उपदेश दिया है. यह मुनिग्रत सत्पुरुषोंके द्वारा सेवन किया गया है. पुण्यवान मुनीश्वर जिन आहारोंका त्याग किया है उनका सेवन कभी भी नहीं करते हैं और संस्तरमें आरूढ होकर इस मुनिव्रतकी पूर्ण तया सिद्धि कर लेते हैं.
तम्हा कलेबरकुडी पन्बोढव्वत्ति णिम्ममो दुक्खं ।। कम्मफलमुवेक्खंतो विसहसु णिव्वेदणो चेव ।। १६७७ ॥ कलेवरमिदं त्याज्यमिति विज्ञाय निःस्पृहः ५
सहस्व कर्मजं दुःवं निबेदन वाखिलम् ॥ १७४३ ॥ विजयोदया-तम्हा तस्मात् । कलेवरकुडी शरीरकुटी । पञ्चोढम्बात्त परित्याज्येति मत्वा । णिम्ममो शरीरे. ममतारहितो। दुपत्र विसहसु दुःखं बिसहस्व । कम्मफलमुयेकवतो कर्मफलमुपेक्षमाणो । णिम्वेदको चेव निषेदनमेव ॥
उपसंहारमाह--- मूलारा--पव्योहयत्ति परित्याग्मेति मत्वा । कम्मफलं निष्प्रतीकारमित्यर्थः । णिवेक्षणो चेष निवेदन इव ॥
अर्थ-इसलिये यह शरीररूपी मोपदी त्यागने योग्य है ऐसा समझकर हे क्षपक! शरीरमें तू ममता रहित होकर कर्मफलके विषयमें रागद्वेषरहित हो. वैराग्यमें तत्पर होता हुआ परीपहादिकोंसे उत्पन्न दुए दुःखोंको बेद- : नारहित समझकर सहन कर.
CENTREATRETon
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