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बलारामना
आश्वास
जीवस्स णत्थि तित्ती चिरंपि भुजंतयस्स आहारं ॥ तित्तीए विणा चित्तं उच्चूर उन्हुदै होइ ॥ १६५३ ॥
आहार वसभमानाऽपि चिरंजीबो न तप्यति ॥
उठवृत्तं सर्वदा चित जायत तृप्तितो विना ।। १७१८ ।। विशेश्या-जीवसर पनि हिली जय नामित तृमिः चिरमध्याही भुजानम्य । तृपया च विना विर्स नितरामुपले भवति ।
Hasir...
मृलारा-धूरं अत्यंत । उदं आकुलं ॥
अर्थ---हे क्षपक ! चिरकालपर्यंत आहार ग्रहण करके भी यह जीव तृम नहीं हुआ है और नप्तिके बिना यह चित्त अत्यंत आकुल रहता है.
जह इंधणेहिं अग्गी जह य समुद्दो णदीसहस्सेहिं । आहारण ण सको तह तिप्पेदु इमो जीवो || १६५४ ॥ इंधनेनेव सप्तार्षिः सलिलेनेव बारिधिः ॥
अंधसा गृह्यमाणेन जीवो जातुन तृप्यति ।। १७१९ ॥ विजयोध्या-जह रंधणरि मागी यथेन्धनरशिदीसहौलवधिस्तर्पयितुमशक्यस्सथाहारेण जीयः॥ मूलारा--स्पष्टम् ॥
अर्थ-जैसे इंधनोसे अग्नि तृप्त नहीं होता. जैसे हजारो नदीओसे समुद्र उप्त नहीं होता है तथा यह जीव भी आहारसे कभी भी तृप्त नहीं होता है,
देविंदचकबट्टी य वासुदेवा य भोगभूमा य ।। आहारेण ण तिता तिप्पदि कह भोयणे अण्णो ।। १६५५ ॥