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आश्वास
मुन्नागना
मूलारा-तध वि य यद्यपि अग्निमध्यगतास्तथापि । साधुक्कारं भद्रकं भवतीदं यदशुभ कर्म क्षयं यातीति प्रशंसा । सगभंगुलिचालणेण स्वांगुलिनर्तनेन । नखाछोटिकयेलन्यः । केई पतदुभयत्र योज्यं । वकिटिं उक्रोशनं । विशिष्टशब्दकलकलमित्यर्थः ।
अर्थ--.. जग्नीमें भी अपनी अंगुलियों हिलाकर कई बीर पुरुष अच्छा ही हुआ ऐसा सूचित करते हैं. इस उपसर्गसे मेरा कर्म क्षयको प्राप्त होगा. यह अग्नि मेरे कमको नष्ट करती है. इसका हमारे ऊपर बडा उपकार हो रहा है. ऐसा अंगुलियां हिलाकर सूचित करते हैं. कोई धीर पुरुष आनंदसे विशिष्ट शब्द करते हैं.
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जदिदा तह अण्णाणी संसारपवणाए लेस्साए तिव्वाए वेदणाए सुहसाउलया करिति धिदि ॥ १५३० ॥ वेदनायामसखायां कुर्वन्यज्ञानिनो धृतिम् ॥
लेश्यया भवव िन्या सुखास्वादपरा यदि ।। १५९१ ॥ विजयोदया-अधिवा यदि तावत् । तद्द तथा घाणाणीधिदि करिति तथा अशानिनो धृति कुर्वन्ति । संसारपचनजाए लेस्साए संसारप्रवर्द्धनकारिण्या लेश्यया । तिब्वार घेदणाए तीवायां वेदनाय सत्यां । सुहसाउलगा सुखास्वादन लेपटाः ॥
मूलारा-तब तेन साधुकारकरणादिप्रकारेण । संसारपडणाए संसारप्रवर्धनकारिण्या । सुइसाला सुखास्वाइनलंपटाः।
अर्थ--संसारको बढानेवाली लेश्यासे युक्त होकर भी उपसर्गसे तीव्र वेदना होनेपर भी यदि सुखास्वाद करने में लंपट अज्ञानी पुरुप धैर्य धारण कर दुःख सहन करते हैं तो
किं पुण जदिणा संसारसम्वदुक्खक्खयं करतेण ॥ बहातव्वदुक्खरसजाणएण ण घिदा हवाद कुष्जा ।। १५३१ ॥ तदा धृति न कुर्वन्ति किं भवच्छेदनोचताः ॥ ज्ञातसंसारनै सार्या वेदनायर्या तपोधनाः ॥ १५९२ ॥