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भूलागधना
आश्वासः
जिहन्द्रियवशस्याशु बुद्धिस्तीक्ष्णापि नश्यति ।।
संपते परायत्तो योनिगश्लेषलग्नवत् ॥ १७.५।। विजयोदया-गादि युद्धी बुझिनश्यति । आहारलपटतया युक्तायुक्तपिकाकरणात् कस्य । जिहाशस्य तीक्ष्णा पिसती पूर्व युद्धिः कंठा भवति । रसरागमलोपप्लुता अर्थयाधात्यं न पच्यतीति पारसीकपलेशलझलिंग श्य भवति पुरुषोऽमात्मवशः॥
मूलारा-शासदि आहारलंपटतया युक्तायुक्तविवेकाकरणात । मंदा रसरागमलोपटवात्कुंठा । अर्थयायात्म्यं न पश्यसीत्यर्थः । जोणिसिलेसलग्गो घनलेपारलग्न इव ।
अर्थ-जो मनुष्य जिवाके वश होता है. उसकी धुद्धि नष्ट होती है, अर्थात् वह आहार लुब्ध होकर युक्तायुक्त का विचार मनमें से निकाल देता है. जिहाके वशीभूत हुए मनुष्य की बुद्धि प्रथम यद्यपि तीक्ष्ण होगी तो आगे वह मलिन होती है. रसोंमें लुब्ध होकर पदार्थाका यथार्थ निश्चय करने में वह असमर्थ होती है. आहारलोजुलुप मनुष्य वज्रके बंधनसे मानो बंधा हुआ बिलकुल अस्वतंत्र होना है.
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धीरत्तणमाहप्पं कदण्णदं बिणयधम्मसम्मावो ॥ पयहइ कुणड अणत्थं गललगो मच्छओ चव १६४५ ॥ धर्मधर्यक्रतज्ञत्वमाहात्म्यानि निरस्यति ॥
महान्तं कुरुतऽनर्थ गललग्ना यथा ऋषः ।। १७१० ॥ विजयोदया-धीरसं धीरत्व, माहात्म्य, कृनशता, विनयं, धर्मश्रद्धां च प्रजवाशि 1 करोत्यनर्धश्रद्धां च । प्रजछाति करोत्यनर्थमात्मनः । गलावलममरस्य इव ।।
मूलारा-कदादा कृतज्ञता। अणथं मरणांत दुःखमात्मनः। गललको बखिशासक्तः । मरहगो व मत्स्य एव ॥
अर्थ—आहारके वश होकर मनुष्य धैर्य, महत्ता, कृतज्ञता. विनय, धर्मश्रद्धा, इन गुणोंको छोड़ देता है. गलमें लगी हुई मछली जसे अपने प्राणोंको छोड़ देती है वैसे आहारलुब्ध पुरुष भी अपने प्राणोंको छोड़ देते हैं.