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लाराधना
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मूलारा --- अकरितु अकृत्वा । पश्चक्खाणं प्रत्यख्यानस्येति पयन्तं । जघ मंजतो पावदि इति पाठे द्वितीयांत मायम। अत्रोक्तं च
प्रत्याख्यानमकृत्येय मृचस्तम्भैष दोपवान || प्रत्याख्यानं यथा भंजन महान्तं दोषमाप्नुयात् ॥
अर्थ- मोक्षाका करनेवाले मुनिका मरण होना भी अच्छा ही है परन्तु अदादिकोंको साक्षी कर लिए हुए प्रत्याख्यानका भंग करना कभी भी योग्य नहीं होगा. मरण होनेसे एक भक्का ही नाश होगा अर्थात् आगे जन्ममें पुनः प्राणी अपनी उन्नति कर सकेगा परंतु व्रतभंग करनेसे ऐसी प्राणी की हानि होती है कि आगे के कोट्यवधि भवोंमें भी वह अपनी उन्नति करनेमें असमर्थ ही हो जाता है.
अर्थ --- प्रत्याख्यान किए बिना ही जिसने प्राण छोडे हैं वह उस दोषको प्राप्त नहीं होता है जिसको कि प्रत्याख्यान करके छोडने वाला प्राप्त होता है, अर्थात् आहारका त्याग करने की प्रतिज्ञा किए बिना ही जिसने मरण किया होगा उसके मनमें व्रतभंग करने लायक भाव नहीं रहते हैं इसलिए वह महान दोपको प्राप्त होता नहीं परंतु आहारत्यागकी प्रतिज्ञा ले चुकने पर फिर जो अपनी प्रतिज्ञा तोडता है उसके हृदयमें संक्लेशपरिणाम तीव्रता उत्पन्न होते हैं अत एव वह महान् दोषी होता है.
प्रन्याख्यानाहारखेचा हि प्रन्यागयानसंगः समाहारः प्रायमानो हिंसादिदोषानखिलानानयतीति निगदति-आहारत्थं हिंसइ भइ असच्चं करेइ तेणकं ॥
रूसइ लुब्भइ मायां करेइ परिगेहदि य संगे ॥ १६४२ ॥ हिनस्ति देहिनोनार्थ भाषते वितथं वनः ॥
परम्य हरेते द्रव्यं स्वीकरोति परिग्रहम् ॥ १७०७ ॥
विजयोदया - धारस्थं हिंसा आहारार्थ पजीवनिकायान्निति । असत्यं भवति, स्तन्यं करोति । रुष्यत्यलाभे, लुभ्यति मे मार्या करोति परिगृहाति संगान् ।
यवाहारोऽईदादिसाक्षिकं प्रत्याख्यातः स प्रार्थ्यमानोऽहिंसा नशेषान्दो पाननुजयति इति वक्तुमुत्तरत्रबंधमाह
आश्वासः
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