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न्लाराम
आश्वासः
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विजयोदया-आसादिदा परिभूताः । नदो ततः पश्चात् । प्रत्याख्यानप्रदणोत्तरकाल । तेन प्रत्याख्यानभंग. कारिण।। ते अहदान्यः। अध्यमाणकरणेन अप्रमाणकरोन तत्साक्षिकं कर्म प्रतिज्ञातं विनाशयता ते अप्रमाणीकता भवन्ति । अप्रमाणकरणे च ते परिभूता भवन्ति । राजा बिय सक्खिकदो राजेष साक्षीकृतः । कज्जम्मि विसंवदंतेण कार्य विसंवदता । एतदुक्तं भवति राजसाक्षिक प्रतिज्ञातं कर्म वान्यथा कुर्यता राजा यथा परिभूतो भवति एषमईवालय इति ।
इतः प्रत्यास्यानभंगदुष्टता प्रबंधनाचशे
मूलारा---'भासादिदा अयज्ञाहताः फताः । तदो प्रत्याख्यानमहणोत्तरकालं। तेण प्रत्याख्यानभंगकारिणा । आपमाणकरणेण तरसानिकप्रतिशातानुष्ठाननिष्ठापनातिसंवादनेन । यश्च वं विमलभते स तं परिभवतीति प्रतीतमेष । राया वि य नृप इब । विसंघदत्तण व्यभिचरता राजसानिकं प्रतिज्ञातकर्माकुर्वता राजा यथा परिभूतो भवत्येषमईदादयोऽपि इत्यर्थः।।
प्रत्याख्यानका भंग करना मरणसे भी कैसा घुरा है इस प्रश्नका उत्तर आचार्य सविस्तर देते हैं. प्रथमतः प्रत्याख्यान का नाश करना क्यों युग है। इसका खुलासा करते हैं- अर्थ-प्रत्यास्थान ग्रहण कर जिसने उसका त्याग किया है उसने तो अरहतादिकको को साक्षीभूत समझकर उसने प्रत्याख्यान लिया था यदि उसने प्रत्याख्यानको नष्ट किया तो अहंतादिकों को उसने अप्रमाण माना था ऐसा समझना चाहिये, उनको अप्रमाण माननेसे उसने उनका तिरस्कार-अनादर किया ऐसा भाव सिद्ध होता है. जैसे किमी मनुष्य ने किसी कार्य में राजाको प्रमाणभूत मानकर प्रतिज्ञा की थी परंतु उसने उस कार्यकी प्रतिज्ञाका यदि भंग कर दिया तो उसने राजाको अप्रमाणभूत समझकर उसका अपमान किया एसा लोक समझते हैं. इसी प्रकार प्रत्याख्यान लेकर उसको तोडनराले पुरुषने अईदादिकों को अप्रमाणभूत माना है उसने उनका तिरस्कार किया है एसा समझना चाहिय.
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जइ दे कदा पमाणं अरहंतादी हवेज खवएण ।। तस्सक्खिदं कये सो पच्चक्वाणं ण भंजिज्ज ।। १६३५ ।। प्रमाणीकुरुते भक्तो यो योगी परमष्टिनः ॥ तरसाक्षिकमसी जातु प्रत्याख्यानं न मुंचति ।। १७०० ।
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