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मूलाराधना
आधासः
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अर्थ-राजा वगैरह लोक अतिशय धनवान होते हैं. उनकी शुश्रूषा करनेके लिये अनेक मनुष्य सदा तत्पर रहते हैं. रोग दूर करने में वे असंयमकी परवाह नहीं करते हैं. धन्वंतरीके समान चतुर वैव उनके रोगका निदान कर औषधि देते हैं. परंतु चे भी वेदनाका उपशम करने में असमर्थ होते हैं. तात्पर्य यह है कि, उदय आनेपर रोगकी चेदना उत्तम औषसि भी शांत नहीं होती हैं.
किं पुण जीवणिकाये दर्यतया जादणेण लोहि ॥ फासुगदव्वेहिं करेंति साहुणो दणोवसमं ॥ १६१२ ॥ घयालोःसर्वजीवानामौषधेन न्यथाशमम् !!
प्रार्थनाप्टेन किं साधोः प्रासुकेन करिष्यति ।। १६७६ ॥ विजयोदया-किं पुष किं पुनः। जीवणिकाए जीघनिकायान् । दयंतगादयमानाः। जादणेण लद्धा याचया लब्धैः। फासुगदब्वेहि प्रासुकद्ररी । करेन कःच । सादुणो वेदमोचसम साधोर्वेदनोपशमं ॥ परिचारकसंपदभावो दश्यते जीवणिकाप दयंतगा इत्यनेन यथा व्याधायशमो भवति तथा कुत्राने परिवारका मी पुनयतया परसायनिकाय बाधापरिहाणेद्यनाः खयमविलाशमीरची याचनन दहि हन्यनेन त्यसंपदभाव आ गयायते ।।
विपर्यये पावपक्रिमबेदनावाः सुतरां दुर्जयत्वमाह -
मूलारा-दयंतगा दयावंतः। एतेन परिचारकसंपदभावो दश्यते || अन्येहि परिचारका यथाकथंचिद्वपाधि रुपशाम्यति तथा कुर्वते । यतयः पुनः स्वयमाविरोधेन तं प्रति व्याधिविध्वंसनार्थमयोग्यद्रव्यसेवां निराकरोति
अर्थ-मुनिराज वा छह प्रकारके जीवोंपर नित्य दया करते हैं वे याचनासे लाये हुए प्रामुक औषधोंसे क्षपक साधुकी अथवा संगी साधुकी रोगवेदना कैसी मिटा सकते हैं ? उनके पास द्रन्य नहीं रहता है और सजाके समान शुश्रूषा करनेवाले वैद्यादिक परिचारक भी नहीं रहते हैं, राजाको बेदनाका उपशम जिस प्रकारसे होगा वह उपाय परिचारक करते हैं उसमें असंयमका ध्यान ही चे नहीं रखते हैं. मुनि तो छह प्रकारके जीवोंको बाधा नहीं हो इसके तरफ ध्यान देने है. यदि वे नहीं ध्यान देंगे तो उनके संयमका नाश होगा. संयमके रक्षणके साथ रोगपरिहार यदि होगा तो वे आपका सबन करते हैं. यदि संयमरक्षण न होगा तो वे ओषध ग्रहण नहीं करते हैं.
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