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मृलाराधरा
अर्थ-जिस नदीके प्रवाहमें महान् शरीरके धारक-जिनका शारीरिक बल और परक्रम महान् है ऐसे मत्त हाथी भी इझ जाते हैं तो उसमें स्वरगोश कैसे स्थिर रह सकेंगे. अर्थात् वे तो अवश्य हवेग ही.
आश्वासः
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किह गुण अण्णो मुञ्चहिदि सगेण उदयागदेण कम्मेण ।। तेलोकेण मि कम्मं अवारणिज्ज खु समुवेदं ॥ १६१९ ॥ त्रिदशा न पात्यंते विक्रियायलशालिनः ॥
नायासी विद्यते तस्य कर्मणोऽन्यनिपातने ॥ १६८४ ॥ विजयोदशा-किह पुण अषणो मुहिदि पार्थ पुनरन्यो मोक्ष्यते, खेन कर्मणा उदयागतेन । प्रैलोक्येनापि कर्मानिवार्यमेव समुपगते ॥
मूलारा.----पुण वाक्यालंकारे । अपणो त्रैलाक्यांतरवर्ती कश्चिदेकः कर्मोदरप्रतिबंधव्यलोकाहंकारविहथितः । मुगहिदि मोश्यते । स्वफलं नानुभाविपत इत्यर्थः । समुवे सम्मुख मुदयमागतं ।
अर्थ-देव भी कर्मके उदयवश होकर मरण दुःस्वस अलग नहीं रह सकते हैं तो अन्य प्राणी इस दुःखसे कैसी अपनी मुक्तता कर सकेंगे. सर्व त्रैलोक्यने भी यदि उदयमें आये हुए कर्म को रोकनेका मयत्न किया तो भी वह उनसे नहीं रुका जायगा अर्थात बलवान् कर्म अनिवार्य है.
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कह ठाइ सुरूपत्तं वारण पडतयम्मि मेरुम्मि ॥ देवे बिय बिहडयदो कम्मरस तुमम्मि का सण्णा ॥ १६२० ।। कर्मणा पत्नीन्द्रे तु परस्य के व्यवस्थितिः ॥
मेरी पतति वातेन शुष्कपत्रं न तिष्ठति ॥ १६८५ ॥ विजयोदया-कह ठाइ सुक्कपनं कथं तिष्ठत् शुष्कपत्र । वातन पतति मेरी। अणिमाचगुणसंपन्नान्दयानपि कुस्लीकुर्वतः कर्मणो भवत्यल्पवले का संशा ॥
रहातमुपन्यस्य कर्मणोऽशक्यमतीकारतां दर्शयन्क्षपकं तदुपेक्षायां सडमवस्थापयति