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मूलाराधना
आश्वासा
गुला-सुदि आक्षेपणी, संवेलनी, निर्वेदनी चेति त्रिषिधकर्मकथाश्रवणं । उपगहिदेण आहितवलेन त्वया। तपय वेदनासइजाय से यस्वेति विधिरत्र पर्ययस्यति । उक्तं च----
श्रुतिपानकशिक्षाशुभध्यानौषधैर्यते ।।
वेदनानुगृहीवेन सोढुं तीवापि शक्यते ॥ अर्थ- क्षपक इस संसारमें अनंतबार तुमको इतनी तीव्र प्यास लगती थी की उसको प्रशमन करनेक लिये सर्व समुद्रोंका जलभी असमर्थ था.
अर्थ-हे क्षपक ! भूख भी अनंतवार इतनी तीत्र लगीथी की उसको मिटानेके लिये सर्व जगतके पुद्गल भी अक्षम रहे.
अर्थ--ऐसी तीवभूख और प्यास यदि तुमने परतंत्र होकर मह ली थी तो अबकी नदना धर्म समझकर तुम स्वववश होकर क्यों न सहन कर सकोग. अवश्य सहन कर सकोगे ही.
अर्थ--संवजनी, निजनी और आक्षेपणी इन तीन धर्म कथाओंका श्रवण करना ही मानो अमृत है. इस अमृतका प्राशन करके तथा नियोपकाचार्यका उपदेश रूपी भोजन भक्षण कर तुझारा आत्मवल सहेगा शुभध्यानरूपी औषधीका भी सेवन कर तुम इस वंदनाका अन्त कर सकते हो
................भीदो व अभीदो वाणिप्पडियम्मो व सपडियम्मो वा ॥ मुच्चइण वेदणाए जीवो कम्मे उदिण्णम्मि ।। १६०९ ।। पीडानामुपकारस्य सोपकारस्य घोदिता
नाभीतस्य न भीतस्य जतोनश्यति कर्मणि ॥ १६७३ ।। घिजयोक्ष्या-भीवो व अमीदो वा भीतोऽभीतो याणिप्पष्टियम्मो सप्पश्यिम्मो वा निष्पतिकारः सप्रतिकारो वा । मुखदि ण घेवणाप जीयो म मुच्यते घेवनाया जीषः। उदिण्णग्मि कम्मे कर्मण्यसदेचे उदाणे ।
असद्वेयोदयसांमुख्ये वेदनाधिमोक्षाभाषमाइ-- मूलारा--कम्मे असचाख्ये ॥ .
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