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मूलाराधना
आधार
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वृत्त नाक्षकषायातः श्रुतशोऽपि प्रवर्तते ।।
उडीयते कुतः पक्षी लूनपक्षः कदाचन ।। १३९० ॥ विजयोत्या-दियकसायसिपो द्रिय कषायवशगः बहुश्रुतोऽपि चारित्रे नोद्यमै करोति । यथा छिनपक्षः I पक्षी नोत्पतति इच्छन्नपि ॥
मूलारा-इच्छमाणो वि उत्पतितुमिच्छन्नपि ।।
अर्थ--इंद्रिय और कषायोंके वश हुआ पुरुष विद्वान होकर भी चारित्रमें उद्यम नहीं कर सकता है. जिसके पक्ष टूट गये है ऐसा पक्षी उडनेकी इच्छा करता हुवा भी नहीं उड सकता है,
णस्सदि संगपि बहुगं पि णाणमिंदिराकसायसम्मिस्स ॥ विससम्मिसिददुटुं णस्सदि जध सकराकढिदं ।। १३४३ ।। मारून माह ज्ञान र द्रियदूषितम् ।।
समार्फरमपि क्षीरं सषिषं मंक्षु नश्यति ॥ १३९१ ।। विजयोक्या-वस्सवि समपि बहुगपि णाण नश्यति स्वयं बपि शान दियकपायसन्मिध । शर्कराषितं दुग्ध विपमिश्रमिष । माधुर्यात्सातिशयता दुग्धस्य शर्कराकथितपाद्वेन कथ्यते ॥
मूलारा-- पासपि विनश्यति । सुदं शुमास्यं । सकराकदिदं अचिमधुरमित्यर्थः ।।
अर्थ-इंद्रिय और कषाय विकारोंस मिश्र दुआ बडुतसा भी शान नष्ट होता है. विपमिश्रित मी मीठा कवाया हुवा दूध नष्ट होता है अर्थात उसका स्वभाव नष्ट होता है.
इदियकसायदोसमलिणं जाणं ण वट्टदि हिदे से ॥ वट्टदि अण्णस्स हिदे खरेण जह चंदणं ऊढं ॥ १३४४ ।। प्रानं परोपकाराय कषायेंद्रियदुषितम् ॥ किमूतमुपकाराय रासभस्थ हि चंदनम् ।। १३५२।।
१३.३