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मूलाराधना
অাখা
मायादोषनिरुपणायोत्तरगाथा--
जघ कोडिसमिद्धो वि ससल्लो ण लभादि सरीराणवाणं ॥ मायासळेण तहा ण णित्वदि तव समिद्धो वि॥ १३८२ ॥ विदधानोऽपि चारित्रं मायाशल्येन शल्यितः॥
म धृति लभते कुत्र शल्येनेव धनर्दिकः ॥ १४३५॥ विजयोदया--ज़ध कोडिसमिझो बि यथा कोटिसमृद्धोऽपि शरीरानुप्रविधशल्यो न शरीरसुखं लभते । नथा मायाशल्येन न निति लभते तपासमुखोऽपि ॥
मायादोषान्गाथासप्तकेनाह-- मुलारा--कोडिसमिद्धो कोटीश्वरः ।। मायादोषका निरूपण करनेकी लिये उत्तर गाथा
अर्थ-जैसे कोई मनुष्य कोटिधनका स्वामी होनेपर भी उसके पारीरमें प्रविष्ट हुआ चाण उसको I व्यथित करेगा ही. बस मुनिराज तप से समृद्ध होनेपर भी माया शल्यसे उनको सुबिलाभ नहीं होगा.
होदि य वेस्सो अप्पच्चइदो तध अवमदो य सुजणस्स ।। होदि अचिरेण सत्तू णीयाणवि णियडिदोसेण ॥ १३८३ ॥ द्वेषमप्रत्ययं निंदां पराभूतिभगौरवम् ।।
सर्वन लभते मायी लोकदयविरोधकः ।।।४३६ ॥ विजयोदया-होदि य वेस्सो वेग्यो भवत्यमत्ययितः तथा सुजनस्यावमतः । यांधवोपि शत्रुचिरेण भवति मायावोपेण ||
मुलारा-अपनाइदो अविश्वास्यः । णीयाणषि बंधूनामपि । णियति माया ।।
अर्थ-मायावी मनुष्यका सब लोक देष करते है. उसके ऊपर कोई विश्वास रखता नही. उसको अपमानका दुःख सहना पडता है. सुजन उसको मान देते नहीं है. मायाची मनुष्य अपने संबंधी जनोंका भी शत्रु बनता है.
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