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पलाराधना
आश्वास
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अर्थ-लोभ करनेपरभी पुण्यरहित मनुष्यको द्रव्य मिलता नहीं है. और लोभ न करनेपर भी पुण्यवान को धनकी प्राप्ती होती है इसलिये धनप्राप्ति होती है इसलिये धनप्राप्ति होनेमें धनासाक्त कारण नहीं है परंतु पुण्य ही कारण है ऐसा विचार कर लोभ का त्याग करना चाहिये.
अपि च अर्थप्राप्तये जनः प्रयतते अर्थाः पुनासकृत्प्राप्तास्त्यक्ताश्च तेषु को विस्मय इति ममाप्रणिधानं कुरु लोभाविजयायेति वदति--
सब्बे वि जए अत्था परिगहिदा ते अणतनुत्तो मे ॥ अत्थेसु इत्थ को मज्झ विभओ गहिदविजडे सु ॥ १९३७ ।। संसारष्टाध्यमानेन प्राप्ताः सर्वे सहस्रशः॥
विस्मयो लब्धमुक्तषु कस्तेषु मम सप्रितम् ।। १४९५ ।। ___विजयोदया-सचे विजय अत्था सर्वेऽपि जगत्यर्धाः परिगृहीता मयानंतवार ममाथैखमीषु को विस्मयो गृहीत स्यक्तेषु॥
उपायांतरमाहमूलारा-स्पष्टम् । लोमनिर्जयः ॥
धन प्राप्त्यर्थ लोक यत्न करते हैं धन तो अनेक बार मिल गया था और नष्ट भी हुआ था इसलिये धनमें आश्चर्य करना फिजल है लोभ विजयके लिये ही हे क्षयक मनको स्थिर कर एमा आचार्य उपदेश करते हैं
अर्थ- इस त्रैलोक्यमें मैने अनंतबार धन प्राप्त किया है. अतः अनंतबार ग्रहण कर त्यागे हुए इस धन के विषयमें आश्चर्य चकित होना फिजूल है.
इह य परत्तय लोए दोसे बहुए य आवहइ लोभो ।। इदि अप्पणो गणित्ता णिज्जेदव्वो हवदि लोभो ॥ १४३८ ॥ लोकद्वये दुःखफलानि दत्ते गार्धक्यतोयेन चिवर्द्धितोऽयम् ।। संतोष शस्त्रेण निकर्तनीयः स लोभवृक्षो बहुल क्षणेन ॥ १४९५ ।।