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मूलाराया
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उत्तमम्मि रत्नत्रयाराधनायां सर्वा विपदो निराकर्तुमभ्युदय निःश्रेयससंपदः संपादयितुं कर्मविषवृक्षमुन्मूलयितुं, अनंतज्ञानादिश्वतुष्टयश्रियमाष्ट्र असारशरीरभारमपसारयितुं च समर्थतमामिमामासंसारमप्राप्तचरी रत्नत्रयाराधनां विधातुमुद्यतोऽस्मि, धन्योऽस्मि, कृतकृत्योऽस्मि, पुण्याई ममेदमद्येति प्रीति भाषयेदित्यर्थः । पुरा दुधरिदादो पूर्वाचरिते दुराचारे । मनादिकाल मिध्यात्वा संयम कषायाऽशुभयोगपरावर्तेषु चतुर्विश्वबंधनिबंधन तथा विविध चतुर्गतिदुःखप्रबंधवि धातृषु मंदभाग्यः कथमहं प्रवृत्तः १ हिताहितमीमांसामूढतया सन्मार्गोपदेशकं गुरुं लब्ध्वापि प्रवलज्ञानावरणोदयवशात् वदुपदिष्टार्थत स्वस्यानयधोधेऽपि दुर्मधमिध्यात्वविपाकेनाश्रद्धानेऽपि वर्षारचारित्रमोहोद्रेकेण श्रेयोमार्गाप्रवृत्तेश्च कथमहं दुरंत संसारपारावार दुःखावर्त्तसहस्रेषु मुदुर्मुहुर्विवृत्तोऽस्मीत्युद्विमहृदयो भवेदित्यर्थः ।
प्रीति, भय और शोक ये अशुभ परिणाम है अतः अशुभ कर्मका आगमन होने में ये हेतु हैं. निद्रा के समान वे भी त्याज्य है तो भी संवरार्थी के लिए इन भयादिकोंका निरूपण आचार्य क्यों करते हैं ? इस शंकाका परिहार करनेके लिए प्रीत्यादिकके विषयोंका भी खुलासा करते हैं
अर्थ :- हे क्षपक तू पंच प्रकारकं परिवर्तन रूप संसारसे भययुक्त हो, रत्नत्रयकी आराधना करने में व् प्रेम युक्त हो और पूर्वकृतपाप के विषय में मनमें शोक कर. ऐसा करनेसे तू निद्रापर विजय पा सकेगा.
नरकादि गतिओम अनेक वार उत्पन्न होकर अनेक प्रकारके शारीरिक, आगंतुक, मानसिक दुःखों का तू अनुभव लिया है. ये दुःख फिर भी मेरेको प्राप्त होंगे ऐसा विचार कर भययुक्त हो. और अपना मन ध्यान में एकान कर. यह रत्नत्रयाराधना सर्व संकट समुदायका नाश करती है. अभ्युदय और मोक्षसुख देती हैं. असार शरीरका भार इस रत्नत्रयाराधनाये दूर होता है. इससे जीनको अनंत दर्शन और अनंतज्ञानकी मानि होती है. यह कर्मरूप विषवृक्षको उखाने में समर्थ है. इसकी अनंत भवोंमें कभी भी प्राप्ति नहीं हुई थी. मैं आज इसको प्राप्त करने में उयुक्त हुआ हूं. ऐसा विचार करके रत्नत्रयाराधनामें प्रीतिकी भावना भानी चाहिये
हिंसा, असत्य भाषण, चोरी, मैथुन सेवन और ब्रह्मचर्य ये पांच कुकार्य विचित्रकर्मकी उत्पत्ति करनेमें हेतु हैं. मिथ्यात्व कषाय, और अशुभ मनोवचन और काय इनसे नाना प्रकार के कर्मोंका जीवमें आगमन होता है. उपयुक्त कारणोंसे प्रकृति, स्थिति वगैरह चार प्रकारके कर्म बंधकी उत्पत्ति होती है. मंदभाग्यवान मैं ऐसे का में हमेशा प्रवृत्त हुआ था. हिताहितविचार करनेवाली बुद्धिकी मेरेमें कमी थी. सन्मार्गका उपदेशक न मिलनेसे,
आश्वासः
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