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मूलागखना
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विषयांत व सार्वमाणोऽपि । कम्मे नोइंद्रियमतिज्ञानावरणे । उदिष्णम्मि तीव्रवेदनादिवशाद्दुर्निवारमुदेति ॥ सारणा सूत्रतः ३४ अंकतः २०
अर्थ - इस प्रकार अयोग्य इच्छासे परावृत्त करनेपर भी कोई क्षपक पापकर्मके उपशमसे योग्य विषयके स्मरण को प्राप्त होता है. अर्थात् में अकालमें भोजन करनेकी और पेय पदार्थ पीनेकी इच्छा की थी. जिसका मैंने त्याग किया है उसका योग्य कालमें भी सेवन करना अनुचित है. ऐसा स्मरण उसको होकर वह अयोग्य आचरण परावृत्त होता है. परंतु जिसका पापकर्म उदयमें आता है और नो इंद्रियमतिज्ञानावरण कर्म उदयमें आता है वह स्मरणशून्य होता है. यह सारणा नामक प्रकरण समाप्त दुआ.
सदिमल तरस वि कादव्वं पडिकम्ममहियं गणिणा ||
उबदेसो विसया से अणुलोमो होदि कायव्वो ॥ १५०९ ॥ प्रतिकर्म विधातव्यं तस्य स्मृतिमगच्छतः ॥
उपदेशोऽपि कर्तव्यः स्मरणारोपणक्षमः ।। १५७० ।।
विजयोदया सहिमलमंतस्स वि स्मृतिमलभमानस्यापि गणिनाऽस्थितं कर्तव्यं । प्रतिकारः, उपदेशोऽपि अनुकूलः सदा तस्य कर्तव्यः ॥
पथ तथाकृतसारणस्याराधकस्य वचनं गाथानां चतुःसप्तत्यधिकेन शतेन व्याचिख्यासुस्तदुपक्रमाय प्रथमं पड्गाथाः कथयति-
मूलारा— अद्विदं निरंतरं । अणुलोमो स्मरणारोपणप्रवणः । दर्शनानुयायीत्यपरः ॥
अर्थ- जो स्मृतिको प्राप्त होता नहीं है उसको भी निरंतर उपाय करना चाहिये उसको सावध करनेके उपाय करने चाहिये. वैसे उसको अनुकूल उपदेश भी हमेशा करना चाहिये.
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यतोऽपि य कम्मोदयण कोई परीसहपरद्धो ॥
उम्भासेज्ज वडक्कावेज व भिदेज्ज व पदिण्णं ॥ १५१० ॥
आश्वासः
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