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मूलाधना
आश्वासा
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तया परेणावधारिलो दोषरे समः नास्तिीति क्षमा कार्यो । असदोषख्यापनेनास्य मम किं नष्टमिति । अणुकंप. अनुकंपा । अयं बराकोऽसजल्पनेन भूरिदुःखाबई दुरुकृतभार अर्जेति, नहि मदीयैर्दोषैरस्य किंचिशेषजातमायाति गुणैर्वा गुण जातं । ततो मुधानेन पाप बध्यते इति क्षमामयी चिंता आक्रोशके कुर्यात् । एवंभूते हि क्षान्स्यनुकंपाभावने सधः कोपमपसारवतः ।।
अर्थ-मैंने इसका अपराध किया नहीं तो भी यह पुरुष मरेपर क्रोध कर रहा है गालि दे रहा है. मैं तो निरपराधी हूं एसा विचार कर उसके ऊपर क्षमा करनी चाहिये. इसने मेरे असद्दोषका कथन किया तो मेरी इसमें कुछ भी हानि नहीं है. अथवा क्रोध करनेपर दया करनी चाहिये, क्योंकि यह दीन पुरुष असत्य दोषोंका कथन कर पापोपार्जन कर रहा है. यह पाप उसको अनेक दुःखोंको देनेवाला होगा. मेरे दोषोंसे न इसमें दोष उत्पन्न होते हैं और न मेरे गुणोंस इस में गुण पैदा हो जाते है. प्राणिक गुण दोष उनके साथ ही संबद्ध रहते हैं अतः सुख वःखका संबंध ही नियत प्राणिओंसे ही रहता है अतः दीन व्यर्थ ही कमबंध कर रहा है ऐसा विचार कर असहोप कहने वालेपर दयाभाव रखना चाहिए. चिंता करुणात्मिका रोष परुषमपसारयति
( जदि वा-सवेज्ज संतेण परो तह वि पुरिसेण खमिव्वं ।।
सो अस्थि मज्झ दोसो ण अलीय तेण भणिदत्ति ॥ १४२१ ॥ सत्येऽपि सर्वतो वोपे सहनीय मनीषिणा ।।
विद्यते मम वोषणेऽयं न मिथ्यानेन जल्पितम् ॥ १४७८ ॥ विजयोदया-जदि या सबेज्ज यदि षा शपेच्च सता दोयेण तथापि क्षमा कार्या । सोऽनेन कथ्यमानो दोपो । ममास्ति न व्य लीकं तेनोकमिति संकल्पयता 1.न हि संतो दोषाः परे सेढुवन्ति विनश्यति ॥
मूलारा-जदिदा सबेन इत्यादि । लोको हि प्रायेणासतोऽपिवोपाल्पति । किं पुनः सतस्तकोऽस्य दोषो न कश्चिन्मभेवाचं प्राचनदुर्दैवानुभावो येनाइमेवविध दोष : जानमपि न त्यक्तुं शक्नुयामिति तत्त्वज्ञानभावनामयी क्षमा कुर्यादिति तात्पर्य ॥
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