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मूलाराधना
आश्वास
अंतर्जातस्य कोपस्य लिंग लिंगभावः । बाह्यानामभ्यतराणां चैव भवति यदि परस्पराधिनाभाषिता स्यादग्निधूमयोरिव । प्रसिद्धच लिंगलिगिभायः कार्येण बाहोन कारणस्याभ्यंतरस्येति भावार्थः ।।
मूलारा- लिंग गमकं । धूम एव वन्हे। कार्याख्यं सायनमित्यर्थः । अम्भतरस्स अन्तःपरिणामस्य | पाहिरा अनानादितपोषिपया । सामान्येन्द्रियकपायदोषाः ॥
अर्थ-अभ्यंतर परिणाम शुद्धीका अनशनादि बाह्य तप लिंग है, चिह्न है. जैसे किसी मनुष्यके मनमें क्रोध जब उत्पन्न होता है तब उसकी भोहें ऊपर चढ़ती है और ज्यादह वक्र होती हैं. अर्थात् चढी हुई भोहें देखकर लोक इस मनुष्य के मनम क्रोधका विकार उत्पन्न हुआ है ऐसा अनुमान करते हैं. इस प्रकार बाह्य और अभ्यंतर परिणामोंमें लिंगलिंगभाव है. अर्थात् बाघ लिंग है अंतरंग लिंगी है. अभ्यंतर और बाह्य इनमें जब आपसमें धूम और अनिके समान अधिनाभाव उहता है तर लिंगठिगिमात्र गाया जाता है और बाह्य कार्यरूप और अभ्यंतर कारणरूप होनेसे अविनाभाव इनमें होता है ऐसा अभिप्राय समझना चाहिये.
ते चेव इंदियाणं दोसा सवे हवति णादन्या ।। कामस्स य भोगाण य जे दोसा पुव्वणिविष्ठा ।। १३५१ ॥ ये रामाकामभोगानां प्रपंचेन निरूपिताः ।।
अक्षाणामपि ते योषा द्रष्टव्याःसकलाः स्फुटम् ।। १४०१॥ विजयोदया- येव बियाणे दोसा न पद्रियाणां सर्वेषां दोपा भवन्ति इति ज्ञातव्याः । के? ये दोसा पुष्प णिदिष्टये दोषाः पूर्वनिर्दिष्टाः । कामरस य भोगाण य कामस्य भेगानां च संबंधितया निर्दिष्टा दोषाः ॥
इदानी विशेषण इंद्रियदोषान्गायानधन व्याचिख्यासुः पूर्व सामान्येन तदभिधानाय गाथाद्वयमाहमुलारा स्पष्टम् ॥ अर्थ- काम और भोगसबंधी जो दोष पूर्व कहे हैं वे ही सर्व दोष इंद्रियोंफे विषयमें भी समझने चाहिए.
महुलितं असिधारं तिकवं लेहिज्ज जध णरो कोई ॥ तध विसयसुहं सेवदि दुहावह इहहि परलोगे ॥ १३५२ ।।