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मूलाराधना
आवास
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मूलारा-उरमो सर्पः। दभतणंकुरइदो दर्भसूचीविद्धः । पकुष्पतो प्रकर्षेण कुप्यन् । अषिसो पृष्ट दर्भाविक भक्षयित्वा झटित्युदीर्ण गरलो भवति । गिरमागे क्रोधविषयमपकृत्य नटरनत्रयः स्यात् ।। उक्तं च
कुपितो गहे माणोऽयं निःसारो जायते यतिः ।।
दर्माकुरमिव स्तम्भं दुष्टषुद्धिर्भुजंगमः॥ अर्थ-जैसे उपविषका धारक सर्प दर्भ तृणकरसे व्यथित होकर अतिशय क्रुद्ध होता है. और उस तृण को क्रोधसे खा डालता है तत्र निर्चिप होता है बस यति भी क्रोधसे रत्नत्रयका नाश करता है जिससे वह नि:सार होता है,
पुरिमो मकडसरिमो होदि सरूवो वि रोसहदरूबो । होदि य रोसणिमित्तं जम्मसहासेसु य दुरूवो ॥ १३६९ ॥ सुरूपोऽपि नरो राष्टो जायते मर्कटोपमः ॥
कोपोपार्जिसपापश्च विरूपो जन्मकोरिषु ॥ १५२२ ।। विजयोन्या-पुरिसो मकरसरिसो पुरुषो मर्कटसदृशो भवति । सुरूपोऽपि सरोषोऽपढ़तरूपः । इह जन्मनि दोपानुपदर्य पारमयिकराच-होनि भवति । जन्मसहस्रपु दुरुप एतद्भवतात्कोपात् ।।
मूलारा- रोसणिमि एकजन्मकृतेन रोषण हेतुना ॥
अर्थ---पुरुष सुंदर होनेपर भी जब वह क्रोश्युक्त होता है तब उसका रूप नष्ट होता है. वह मर्कट सरीखा दीखता है. इतनाही नहीं रोषसे वह अनेकजन्मोंमें अर्थात हजारो जन्मोमें कुरूपही होता है. एक भवमें कोप करनेसे अनेक जन्मों में कुरूपता प्राप्त होती है.
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सुकु वि पिओ मुहत्तेण होदि वेसो जणस्स कोधेण ।। पाधवी वि जसो पस्सदि कुद्धस्स अकजकरणेण ॥ १७ ॥
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