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मूलाराधना
आश्वास
बाह्यान्युपविधानि । यदि यवथै तत्वधानं इति प्रधानताभ्यंतरतपसः। तच शुभशुपरिणामात्मकं । तेन विनान निर्जरायै बाह्यमलं । उक्तं च-बारा तपः परमदुश्वरमाचरंस्त्वमाध्यात्मिकस्य तपसः परिहणाथै इति। ण खु कुंडयस्ससोधी सका काई जे नेवारतर्मलस्य शुद्धिः शक्या कर्नु । कस्य ? ससस्स सतुषस्य धान्यस्य ।
न चैवं बाधं सपो नानुष्यमित्यबसेयं यतःमूलारा- अभतरेत्यादि अभ्यंतरक्रियाणां बिनयादीनां शुद्धधध अभ्यंतरतपसा लघ्व्व बहुतरकर्मनिजरणक्षमाणा परिवृदये यायतपांसि क्रियते । इति न व्यर्थतया तान्युपदिष्टानि । यद्धि यदर्थ तत्र तत्प्रधानमिति, तत्प्रधानताभ्यंतरक्षएस इति तात्पर्य ॥ कोटयस अन्तर्मलस्य । सुद्धी स्फोदनं सतुसस्स सतुषस्य घान्यस्य ।
मायनर नरम: दाहिये ऐसा आगममें कहा है. और वह अपना फल जीवको देता ही है परंतु आप तो उसको निष्फल बता रहे हैं अतः यह आपका कहना विरुद्धसा मालूम होता है । इस प्रश्नका आचार्य उत्तर
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अर्थ-बाह्य क्रियाओंकी अनशनादि तपोंकी निर्मलता अंतरंग विनयादि तपाको निर्मल करनेके लिये होती है अर्थात अभ्यंतर तप थोडे कालमें बहुत कोंकी निर्जरा करनेका सामर्थ्य रखते हैं. और बाह्य तप इनतपोंका सामथ्र्य बढ़ाता है. अतः पाय तपाको 'बाह्य यह नाम सार्थक है. अभ्यंतर तपके लिये बाह्य तप है अतः अभ्यंतर तप प्रधान है. यह अभ्यंतर तप शुभ और शुद्ध परिणामोंसे युक्त रहता है. इसके बिना बाबतप कर्म निर्जरा करने में असमर्थ है. श्रीसमन्तभद्र आचार्य हे प्रभो आप अतिशय काठिन ऐसा बाह्य तप अन्तरंग तपकी वृद्धीके लिय करते थे' ऐसी जिनेश्वर की स्तुति करते हैं. इससे अभ्यंतर तप प्रधान है. और बाह्य तपसे अभ्यंतर तपमें विशुद्धता प्राप्त होती है यह सिद्ध होता है. बाह्य तप निष्फल अर्थात् व्यर्थ है एसा समझना योग्य नहीं है, जो धान्य सतप है अर्थात् ऊपरकं छिलकेसे युक्त है उसका अन्तर्मल नष्ट नहीं होता है. जब छिलका नष्ट होता है तब धान्यका अन्तर्मलभी नष्ट होता है. अतः अन्तरंग तपकी विशुद्धताके लिये बाय तप भी करना चाहिये ऐसा आचार्यका मत इस गाथासे स्पष्ट होता है.
अभंतरसोधीए सुई णियमेण बाहिरं करणं ॥ अभंतरदोसेण हु कुणदि णरो बाहिरं दोसं ॥ १३४९ ॥
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