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लाराधना
आश्वासः
पास जलता हुआ भी दीपक क्या पदार्थोको दिखानेमें उस पुरुषको सहायक होता है ? इसी प्रकार कपायवश होनेपर आत्माको उसके ज्ञानसे पदार्थों को जाननेमें सहायता नहीं मिलती है.
इदियकसायमइलो बाहिरकरणणिहुदेण वेसेण ॥ आवहदि को वि विसए सउणो वीदंसगेणेव ॥ १३४६ ॥ पहिनिभृतयेषेण गृहीते विषयान्सदा ॥
अंतरामलिनः कंको मीनानिव वराशयः ॥ १३९४ ।। विजयोध्या--दायकसायमइलो इंद्रिययायपरिणाममलिनः वाहिरकरणणि देण वेसण । चाहाया गमनादिकाराः प्रियाया नितन वपेण । कोई विसा आवहदि । कश्चिद्विपमानावइति आत्मनो भोगाय ॥
मलारा- बाहिरकर गणिहदेण। गमनागमनादिक्रियामवृतेन । येसेण आकारेण । आवहदि सेयते। भवण पक्षिणः । त्रीसगेणेव बीतकनव । गृहधृतशिभितपक्षिणो यथा व्याध इति शेषः । अन्यस्तु सउणो बीसंगणेव इति पठित्वा पक्षी पंकवा यथेति प्रतिपन्नः । तथा च तद्मथ:
पायाझो कुटीश्चित्ते बहिनिभृत्तवेषयान ॥
आदत विषयांबवा निभृतः शकुनो यथा ॥ अर्थ---इंद्रिय और कषायवश होकर जिसका आत्मा मलिन दुआ है ऐसा पुरुष बाध आना जाना वगरह क्रियाओंसे अपना मुलस्वरूप-मालिनस्वरूप छिपाकर विषयोंका सेवन करता है परंतु मन में यह निःशंक नहीं रहता है अर्थात् मेरा मलिन स्वरूप कदाचित् लोक जानेंगे ऐसा भय हमेशा उसको व्यथित करता है. जैसे पारधी किसी पक्षीको पकडकर उसको शिक्षण देकर उसका पूर्वस्वरूप छिपाता है वैसे कषायमलित आरपा अपना मलिन स्वरूप छिपाकर बाह्य क्रियाओसे अपनी शुद्धता दिखानेका प्रयत्न करता है परंतु वह मन में हमेशा शंकित ही रहता है.
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घोड़गलिंडसमाणस्स तस्स अभंतरम्मि कुधिदस्स !! बाहिरकरणं किं से काहिदि बगणिहुदकरणस्स ॥ १३४७ ॥