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मूलाराधना
विजयोदया-प्रसियार्या ॥ मुलाय-कलिणा कलाइन ॥
अर्थ-जो साधु दीक्षित होकर मी पुनः इंद्रिय और कषायरूप कलहका स्वीकार करता है वह कलह से रहित होकर भी फिर कलहका स्वीकार करता है ऐसा समझना चाहिए.
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उत्तरगाथा
सो णिच्छदि मोत्तुं जे हत्थगयं उम्मुयं सपज्जलियं ॥ सो अकमर्दिकण्डसप्पं छादं बाधं च परिमसदि ॥ १३२८ ।।
विधाय ज्वलितं हस्ते मुरं स भुक्षते॥
. आक्रामति स कृष्णाहिं व्याघ्र स्पृशति सक्षुधं ॥ १३७६ ॥ विजयोदया-सोणिच्छदि स नेच्छति । मोनु मोक्तुं । कि हत्यगय हस्तस्थितं इस्तगतं था । उम्मुई संपरजलिये उन्मुकं सुष्टु प्रज्वलितं । सो कण्डसप्पमकमदि स कृष्णसर्पमतिकाम्पत्ति । छाद वग्यं च परिमसदि क्षुधोपद्रुतं व्यानं च स्पृशति ।
मूलारा-मोन्तुं जे त्यक्तुं । वम्मुगं अर्धप्रज्वलितकाष्ठं। अक्कमदिलंघयति छादं क्षुत्पीडितं । परिमंसदि सृशवि||
अर्थ-जो साधु दीक्षित होकर पुनरपि इंद्रिय और कषायरूप परिणामोंको स्वीकारता है वह हाथमें जलवे दुए अनिको नहीं त्यागना चाहता है अथवा काले सर्पको लांघकर जाना चाहता है किंवा भूखसे पीडित व्याघ्र को स्पर्श करना चाहता है ऐसा समझना चाहिये.
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सो कंठोल्लगिदसिलो दहमस्थाहं अदीदि अण्णाणी ॥ जो दिक्खिदो वि इंदिय कसायवसिगो हवे साधू ॥ १३२९ ॥ कंठालग्नशिलोऽगाधं सोऽज्ञानो गाहते हवम् ।। अवलो वापि यो दीक्षां कषायाकं प्रपद्यते ।। १३७७ ।।
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