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मलागधना
आश्वान
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विजयोदया-यथारधी पलार्यतो णिदिजदि यथा रथी पलायाद्यते । कीहक् ? सपाजो पम्गहिदचावडो सश्रतः प्रगृहीतचापकांडः। तथा नियकसरायवसिगो यि पश्यज्जिदो तथा द्रियकपायघशवपि प्रयजिनो निंद्यते ॥
सुमारा-सी मामः ।
अर्थ-जैसे-युद्ध के लिये तयारी जिसने की है अर्थात कवच पहन कर और हाथमैं धनुष्य और बाण लेकर लदने के लिये जो रथम आरूर दुआ है ऐसा रथी बीर रणको देखकर यदि दरक मारे युद्धस भागने लगेगा तो जगतमें उसकी निदा हुए बिना नहीं रहेगी. वैसे दीक्षित होनेपर इंद्रियकवायवश हुआ पुरुष जगतमें निंदाका पात्र होता है.
जध भिक्खं हिंडतो मउडादि अलंकिदो गहिदसत्थो । गिदिज्जह तब इंदियकसायवसिगो वि पव्वज्जिदो ॥ १३३५ ॥ कषायाक्षवशस्थायी दृष्यते कैन संपतः ।।
याचमानो पधा मिक्षा भूषितो मुकुटादिभिः॥ १३८३ ॥ घिजयोट्या-जध भिक हिंस्तो मुकुटारिभिरलंयसो गृहीतशतो भिभमन् निचते । मिंधते इंद्रियकपाययशवों प्रमजितः ॥
मूलारा गहिदसत्थो धृतात्रः।
अर्थ-जैसे मुकूट, अंगद वगैरह आभूषण पहना हुआ, हाथमें शस्त्र को धारण करनेवाला मनुष्य यदि भीख मांगता हुआ देखा गया तो उसकी लोक निंदा करते हैं वैसे दीक्षा लेकर इंद्रियवश और कषायवश होना यह ऊपरेक वृष्टांत के समान निंदनीय है,
इंदियकसायवसिंगो मंडो जग्गो य जो मलिणगत्तो । सो चित्तकम्मसमणोच नमणरूवो अपमणो हु ।। १३३६ ।। सर्वागीणमलालीढो ननो मुंडो महातपाः॥ जायते सकषायाक्षश्चित्रश्रमणसषिभः १२८४ ।।
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SHASTRARAN