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• मूलाराधना
आश्वास
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विजयोदया-सा कंठोल्लगिदसिलो स कंठावलंधितशिलः दिमाया दरमगाधं । अदीदि प्रविशति । अ. पणाणी अशः । जो विस्मिनो बिय यो दीक्षिनापि इंदियकमायबसिगो इंदिकवायवशवर्ती सारयादमेदव्यवहारः ।।
मूलारा-कंठोलगिदसिलो गलावलंचितपद् ।।
अर्थ-जो अज्ञानी साधु दक्षिा लेकर इंद्रिय और कषायके पश होता है वह कंठमें शिला बांधकर . अगाध सरोवरमें प्रवेश करना चाहता है, गाथामें इंद्रिय और कषायके वश हुआ साधु और गले में शिला जिसने बांधी है ऐसा पुरुष इनमें सादृश्य होनेसे आवायने अभेदका व्यवहार कर एक ही व्यक्तीको दो विशेषणोंसे युक्त किया है परंतु एक दृष्टांत और दुसरा दाटीत है.
इंदियगहोवनिछो उवलिटो ण दु गहेण उवसिट्ठो ।। कदि गहो एगभने दोस इतनो भवसरे ।। १३३० ॥ गृहीतोऽक्षग्रहाघातो नापरो ग्रहपीडितः ।।
अक्षयः स सदा दोपं विदधाति कदाग्रहः ॥ १३५८ ॥ विजयोदया-विषयहोवसिटी इंद्रियग्रहगृहीतः । उचमिट्टो गृहीतः। प्य तु गहेण उवसिहो नव ग्रहेणोपसष्टः। कुतः ? यस्मात् । कुणदि गहो प्यभवे दोसं एकस्मिक्षेत्र मंत्र अहो बुद्धिव्यामोहलक्षगं दो करोति । इदरो भयसदेसु वाईयकषायग्रहो मवशतेषु दोपं करोति ॥
मुद्धारा-उवासियो प्रहाविष्टः । दोस बुद्धिव्यामोह ॥
अर्थ-जो इंद्रियरूप ग्रहसे पीडित हुआ है उसको ही ग्रहपीडित कहना चाहिये. जो ग्रहसे पीड़ित है वह वास्तविक पीडित नहीं है. क्यों कि ग्रह तो एक भवमें ही पीडा देता है अर्थात् बुद्धिमें मोह उत्पन्न करता है परंतु इंद्रिय और कषाय रूपी ग्रह इस जीवको सैंकहो भवों में दुःख देता है अतः उसको ही ग्रह कहना चाहिये.
होदि कसाउम्मत्तो उम्मत्तो तध ण पित्तउम्मत्तो ॥ ण कुणदि पित्तुम्मत्तो पावं इदरो जधुम्मत्तो ॥ १३६१ ॥
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RAAT