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मूलाराधना
अर्थ–रात्रिभोजनत्याग, पंच महावत, गुप्ति समिती इनमें प्रयत्न करना एतत्स्वरूप भावनाओंसे आचार्य साधुरूप सार्थको इंद्रियचोरोंसे और कषायरूप हिंस्र प्राणिओंसे रक्षण करते हैं.
विसयाडवीए मऽझे ओहीणो जो पमाददोसेण ॥ इंदियचोरा तो से चरित्तभंडं बिलुपंति ॥ १२९२ ॥ प्रमावधशतो यातो भ्रष्टो विषयकानने ॥
तदीयं बनसर्वस्य लुप्यतेऽक्षमलिम्लुचैः ॥ १३३७ ॥ विसयोदया-विसयाडपीए सझे स्पर्शरसरूपगंधशम्दादिविषया अटवीच ते दुरतिक्रामणीयाः । तस्या विषयाटाया ये जोडीयो पसा , रमाको नामवावास्येन दोषेण । दियचोरा इंद्रियाख्याश्चोराः । सेतस्य साधुवणिजः । चरिसभर चरित्रमांड । विलुपंति अपहरति । समितिमनोसामनोविषयजा इंद्रियमत्यनुयायिनो रागद्वे. पाश्चारित्रं विनाशयंति प्रमादिनः । आचार्यस्तु ध्याने स्वाध्याये प्रवर्तयन् भमाइमपसारयतीति नेद्रियचौरर्वध्यते इति भावः।
विकथायन्यतमप्रमादेन यतिधर्मादपमृतस्य मुमुक्षोरिद्रियकवायसाध्यं संयमधनस्य रत्नत्रयमात्रम्य वा क्षति गाथाद्वयेन लक्षयति ..
____ मूलारा-जो साधुवणिक । ओडीगो अपमृतः । सार्थाद्वहिप्पतित इत्यर्थः । तो सापसरणादननरभेव विलुपंति रागद्वेषहस्तैः।।
अर्थ-प्रमादक वश होकर जो साधु स्पर्श, रूप, गंध, रस और शब्द इत्यादि इंद्रियविषयरूपी अटवी में प्रविष्ट हुआ है उसका चारित्ररूपी भांडवल इंद्रियरूपी चोर हर लेते हैं, जब साधु प्रमादी होते हैं तब समीपके इष्ट और अनिष्ट पदार्थ देखकर उनके मनमें रागद्वेष उत्पन्न होते हैं, जिससे उनका चारित्र नष्ट होता है. आचार्य प्रमादके वशीभूत मुनिओंको ध्यान और स्वाध्याय प्रवृत्त करके उनका प्रमाद दूर करते हैं तब वे शंद्रियचोर उनको बाधा नहीं देते हैं ऐसा इस माथाका भाव है.
अहवा तल्लिच्छाई कूराई कसायसावदाई त । खज्जति असंजमदाढाई किलेसादिदंसेहिं । १२९३ ।।
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