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मूलाराधना
( निर्यापक आचार्य के द्वारा स्तुति किए हुए साधु मोक्षनगरीमें प्रवेश करते हैं इस विषयका विवेचन आगे आचार्य करते हैं
अर्थ-जो उपदेशका क्रम यहांतक आचार्य महाराजने बताया है उससे जब साधुममूहरूपी सार्थ स्कृत किया जाना है नव बह मंसाररूपी महान जंगलके दूसरे किनारेपर सुखसे जा सकता है अन्यथा नहीं. जिसको समितीरूपी बैल जोडे हैं, मनांगुप्ति. वचनगुप्ति और कायगुप्तिरूपी पहिये जिसके हैं सम्यक्त्वरूपी आंख
और सम्यग्ज्ञान जिसकी धुरा है, और द्रव्यरात्रिभोजन साक्षात रातमें आहार लेना और मावरात्रिभोजन-रात्रों भाजनकी मनमें अभिलाषा करना इन दोनोका त्याग ही जिसके दीये दंड है ऐसी दीक्षारूपी गाडीपर सवार होकर साधरूपी व्यापारिओंका समुदाय संसाररूपी महाजंगलके दूसरे किनारको सुखसे जाता है, )
वदर्भडभरिदमारुहिदसाधुसत्येण पत्थिदो समयं ।। पिव्वाणभंडहेदु सिद्धपुरी साधुवाणियओ ॥ १२८९ ॥
प्रस्थितः साधुसार्थेन प्रतभाडभृता सह ।।
सिद्धिसौख्यमहाभांडं ग्रहीतुं सिद्धिपत्तनम् ॥ १३३४ ।। विजयोदया-बदमंडभरिदे बतमांडपूर्ण । साधुसत्येण पत्थिदो साधुसार्थेन सह प्रस्थितः । किप्रति ? सिरिपुरं । निस्वाणभंडj निषीणद्रच्यनिमित्तं साधुषाणियगो क्षपकसाधुवणिक् ॥
मूलारा-भंड क्रयणकं । समयं सह । णिश्वाण सिद्धिसुखं 1 साधुवाणियो क्षपकयतिबणिक् ॥
अर्थ-साधुरूप व्यापारिओंके साथ इस अपकरूप व्यापारीने दीक्षारूपी-व्रतरूप माल भर दिया है और वह इसको बेचकर मोक्षरूपी भालकी खरीदी करने के लिये सिद्धिपुरको रवाना हो रहा है.
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आयरियसत्यवाहेण णिज्जउत्तेण सारविज्जतो ॥ सो साहुवग्गसत्थो संसारमहाडबिं तरइ ॥ १२९० ।।