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मूलाराधना
आश्वा
१२६२
अर्थ--निदानयुक्त तप करके कोई पुरुष स्वर्गमें सुख भोगता हुआ काल व्यतीत करता है. परंतु वहांका आयुष्य समाप्त होनेके अनंतर वह पुरुष स्वगर्म च्युत होकर संसारमें भ्रमण करता है.
( अर्थ-संभृत नामक कोई किसानका लडका निदान युक्त तप करके सौधर्म स्वर्गक सुखका उपभोग लेकर यहां भरत क्षेत्रमें प्रमदन नामक अन्तिम चारहा चक्रवर्ति हुआ. चक्रवर्तीके सौख्य भोगकर चक्रवर्ति पदसे भ्रष्ट होकर नरकगता में सातवे नरकमें उत्पन्न हुआ.)
गच्चा जरंतमयमत्ताणमतिपय विस्यायं । भोगसुहे तो तम्हा विरदो मोक्खे मदिं कुज्जा ॥ १२८२ ॥ अतर्पकमाविश्राम भोगसौख्यं विनम्वरम् ।।
दरतं सर्वथा त्यक्त्वा मुक्तिसौख्ये मतिं कुरु ।। १३२६ ।। विजयोदया–णा शान्वा, दुरवसानःसफलमिति यावत्, अनुवं अनियं, अत्ताणं अत्राण, अनिप्पंग अतर्पक, अविस्साय असकृदनृत्त, भोगसुत्र भोज्यंते व्यं ते इति मोगाः स्यादयः, नेर्जनितं सुग्न, नो पश्चात , तम्हा पश्चात् भोगसुखात . तादिदोषात घिरदो व्यावृतः, मोक्से मोटे निरवशेषकमीपाये। मंदि कुज्जा मनि कुर्यात्, अनुष्ठी यमानेन नारिषेण तपसा या कर्मक्षयोऽस्तीति मतिं कुर्यात् , न निदाने कुर्यादित्यर्थः॥
एवं भोगनिदाने दोषाप्रपंच्य भोगसुखदोषानुवादपुरःसरं तपसा कर्मक्षयोऽस्तीति भावनीवत्वेनोपदिशति---
मूलारा—णका ज्ञात्वा । दुरंत दुरवतानं । दुःखफलमिति यावम् । अत्ताणं अाअर्क, रक्षितुमशक्यमिनि वा। अतिप्पर्य अतृप्तिकरं । अविस्समें असकृतं । अनादिसमारेऽनेकवाराम्भुक्तत्वात । तो पश्चान् । मदि अनुष्ठीयमानेन तपः संयमादिना कर्मक्षयोऽस्तीति बुद्धिं न निदान ||
अर्थ--यह भोगसुख अन्तरहित ऐसे दुःखरूप फलको देता है, अनित्य हैं, इससे जीवका संरक्षण नहीं होता है अर्थात् कुगतिमें जानेवाले जीवको यह भोगसुख उससे संरक्षण नहीं करता है. इस भोगमुखसे जीव तृप्त नहीं होता है. यह सुख जीवको बार बार माप्त होता है. एवं दोपविशिष्ट इस भोगसुखका जब ज्ञान होता है तब यह आत्मा संपूर्ण कर्मका नाश करनेवाले मोक्षसुखमैं अपनी बुद्धिको लगाता है. अतः हे धपक आचरणमें लाये हुए रत्नत्रयसे और तपसे कर्मक्षय होता है ऐसा समझकर तुं निदानका त्याग कर,