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मूलाराधना
आश्वास
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विजयोदया--दोषमेदमधिचिंतयदो इत्येवमेतद्वस्तुजातं अधिचिंतयतः। होज्ज हु मधेदेष,णिदाणकरणसदी निदानकरणे मतिधुद्धिः, इधे परसंतो इत्येवमेतत्पश्यम् , न खु नैष , होदि भवति णिवाणकरणमदी निदानकरणमतिः ॥ णिदाण ॥
एवंविधभावनातनपाना सानयोः फले ब्रवीतिमूलारा-इकचेवमेवं इति प्राक्प्रबंधेनोक्तं । वस्तु । एवमेव इत्यमित्थं । अविचितयनो अध्ययतोऽध्ययिस्था।
अर्थ- उपर्युक्त पाताका जो पुरुष विचार नहीं करता है उसकी घुद्धि निदान करने के तर्फ लगती है. परंतु जो इन बातोंका विचार करता है वह निदान नहीं करता है. निदान करनेसे रत्नत्रयमें निर्मलता आती है और तपके द्वारा कर्मका क्षय होनेसे मोक्षकी प्रालि होती है एसा विचार करनेवाला मुनि निदानका त्याग करता है. परंतु भोगी, जिसकी बुद्धि लुब्ध हो गई है वह मनि रत्नत्रयकी निर्मलताके तर्फ ध्यान नहीं देता है अतः वह निःशल्य नहीं होनेसे संसारमें भ्रमण करता है.
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मायासल्लस्सालोयणाधियारम्मि वष्णिदा दोसा ।। मिच्छत्तसल्लदोसा य पञ्चमववणिया सवे ॥ १२८५॥
आलोचनाधिकारस्य मायाशल्यस्य दृषणं ॥
उक्तं मिथ्यात्वशल्यस्य मिथ्यात्षवमनस्तये ॥१३२९ ।। विजयोदया-मायाससस्स मायाशल्यस्य , आलोयणाधिकारम्मि आलोचनाधिकारे पण्यिादा दोसा वर्णिता दोषाः, मिपछत्तसलवासा मिश्यावशल्यदोषाश्च । सव्ये सवे. पञ्चमवषयिदा पर्वमेव व्यावर्णिताः, भरल्यत्रबगतदाषा भवतो व्यावर्णिता इत्यनेन मूरिरेतकथयति आयुद्धदोषण शल्यत्रय रघया त्याज्यामिति ॥
मायानिध्यारघशल्यदोपा प्रयुक्ताक्षपक्रमनुस्मारयति-- मूलारा-पुवं मिथ्यात्वयमनवनाधिकारे ।
अर्थ-आलोचनाके अधिकारमें मायाशल्यंक दोषांका वर्णन ग्रंथकारने किया है. मिथ्यात्वशल्यके दोपोंका भी पूर्व में वर्णन हो चुका है. हे क्षपक तुझको इन तीनों शल्योंके दोषोंका परिज्ञान हुआ है अतः तू इन तीनों शल्योंका त्याग कर.
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