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मूलाराधना १२३२
इनके विषय में ऐसा विचार करना चाहिये- मेरा कभी पराभव - अनादर- अपमानभी हुआ है तथा कभी पूजाभी हुई है. इस प्रकार इस संसार में अनंतबार मैं पूजाभी गया था. न पूजाएँ अनुराग करना चाहिये और न अनादर होनेके प्रसंग में खुद खिन्न होना चाहिये जैसे मेरी बारबार पूजा हुई थी वैसा बारबार अनादर भी हुआ था. पूजाके समय न मेरा आत्मा कुछ बढा था और न अपमान के समय कुछ घटा था. दोनो प्रसंग में वह असंख्यात प्रदेशी ही रहा था अर्थात् पूजा और अपमान के समय जब आत्माकी घट बढ नहीं होती हैं तो आनंद खेद मानना अज्ञानता काही द्योतक समझना चाहिये. संकल्प वश होकर आत्मा मीतियुक्त और संतापयुक्त होता है, उसको पूजा और अपूजा कारण नहीं है. अन्यत्र इस विषय में ऐसा कहा है- जो पुरुष निर्मल गुणोंका धारक होने से मधुर वचनों से स्तुतिका पात्र बना था वही मनुष्य नानाप्रकारके कठोर बचनोंसे निंदा के वचनोंसे अपमानित भी हुआ था. यह
आर्य हैं. संसारके संकटोंसे यह घिरा हुआ यह पुरुष आत्मा किये हुए नाना कमौके फलका उपभोग लेता हुआ संसार में घूमता रहता है. कभी जीवोंको नृपत्व प्राप्त होना है तो कभी ये दास बनते हैं. कभी वे हीनकुली होते हैं कभी उच्च कुली- पुनरांपे होनकुली होत हैं. जो पुरुष शरीरकी कांती मदनतुल्य और त्रिओं को अतिशय प्रिय थे वे ही जब असुभगत्व प्राप्त होनेपर उनके द्वारा निरस्करणीय अवस्थाको भी प्राप्त हुये थे पुण्योदयसे जो पुरुष उत्कृष्ट रत्नोंसे अलंकृत थे पापका उदय अनंपर वे दरिद्र हुए ऐसामी देखने आया है. जो पुरुष अनेक संकटोंस घिरा हुआ देखा गया था वहीं कालान्तर से मित्र और बहुत प्रियजनोंक द्वारा आलिंगित हुआ है ऐसाभी देखने में आता है अतः उपर्युक्त आदर अनादर वगैरे बातोंमें आनंद और खेद मानना योग्य नहीं है ऐसा विचार कर अभिमानका त्याग करना चाहिये.
इच्चेवमादि अवित्रितयदो माणो ह्वेज्ज पुरिसस्स || एसम्म अत्थे पसदो णो होइ माणो हु ॥ ११३८ । जइदा उच्चत्तादिणिदाणं संसारवणं होदि ॥ कह दीहं ण करिस्सदि संसारं परवधणिदाणं ॥ १२३९ ॥
आश्वासः
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