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मूलाधना
आश्व
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इन इंद्रियसुखोंका उपभोग लेनेसे आत्मामें तीन रागद्वेष उत्पन्न होते हैं और इनसे आत्मा योनिमें पडकर नाना प्रकारके दुःखोका अनुभव लेता है. यद्यपि देवादिगति में वस्त्र, अलंकार, भोजनादिक भोग मिलते हैं तथापि वे इस आत्माके दुःखोंका नाश नहीं कर सकते हैं. इसी विषयका आचार्य दो गाथाओंमें वर्णन करते हैं
अर्थ-संयमके क्लेशसे निदान वश होकर देवांके और मनुष्योंके भोगोंकी प्राप्ति कर लेनेपर यह आत्मा प्रवासी जैसा अपने घरके प्रति गमन करता है वैसा कुत्सित योनिमें निश्चयसे उत्पन्न होता है.
जीवस्स कुजोणिगदस्स तस्स दुक्खाणि वेदयंतस्स ॥ किं ते करति भोगा मदोष वेज्जो मरंतस्म ॥ १२७७ ॥ किं करिष्यति ते भोगा योनि यातस्य कृत्सितां ।।
किंकर्षन्ति मृता दैगा नियमाणाहितः । ११२१ ।। विजयोवया--जीवस्स फुजोणिगवस्स फुयोनिगतस्थ जीयमा । तुरस्त्राणि घेवयंसस्स दुःखानि वेवयमानस्य । किते कति भोगा किं ते कुन्ति भोमाः स्त्रीवस्त्रादयः । नय किंचिदपि दुखलषमपनेतुं क्षमाः मदोष पेज्जो बैठो मृतो यथा । मरंतस्स नियमाणस्य न किंचिरक क्षमः ॥ .
मूलारा-मदो मृतः । मरंतस्स प्रियमाणस्य रोगिणः ।।
अर्थ- कुयोनिओंमें जीव जब दुःखानुभव लेता है तब स्त्री वस्त्रादिक पदार्थ उसका थोडासा दुःख भी हरण करने में समर्थ नहीं है, क्या मरा हुआ वद्य मरनेवालेका रोगदुःख मिटा सकता है ।
जह सुत्तबद्धसउणो दूरंपि गदो पुणो व एदि तहि ॥ तह संसारमदीदि हु दूरपि गदो जिंदाणगदो ॥ १२७८ ।। संसार पुनरागान्ति निदानन नियंत्रिता:।।
दरं यातोपि पक्षीच रश्मिना मिजमास्पदम् ॥ १२२२॥ विजयोन्या-जा सुत्तबद्धसउणो यथा सूत्रेण दीर्धेषा बदः पक्षी । दूरपि गवो दूरमपि गतः । पुणो एदि ताहिं
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