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मूलाराधना | १२५९
मूलाराधना--करेज्ज कुर्यात् । भवकोडिकोडीसु ॥ अनंतेषु भवेषु ॥
अर्थ-इस भव में जो शरि प्राप्त हुआ है उसको शत्रु दुःख देगा या नहीं भी. क्यों कि हम भी उसके साथ लहकर हमारे शरीरका रक्षण कर सकते है. अतः वह नियमसे हमारे शरीरको पारित नहीं कर सकेगा. परंतु भोग अन्तभवों में इस शरीरधारक आत्माको दुःख दे रहे हैं. भोगोंके ऐसे दोषोंका स्वरूप जानकर हे क्षपक! तूं भोगनिदान मत कर ऐसा आचार्य ने उपदेश दिया है.
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मधुमेव पिच्छदि जहा तडिओलंबो ण पिच्छदि पपादं ।। तह सणिदाणो भोगे पिच्छदि ण हु दीहसंसारं ।। १२७४ ।। निदानी प्रेक्षते भोगान्न संसारमनारतम् ॥
मध्येव प्रेक्षते पातं तटस्थायी न दुस्सहम् ।। १३१८ ।। विजयोगा--मधुमेर जिदि मध्येच पश्यति तथा तरेऽवलवमानः । ण पिछदि न प्रक्षते । पपादं प्रपातमास्मनः । तह तथा । सणिवाणो निदानसहितः । मोमे पिच्छदि भोगाप्रेक्षते । पहुपेच्छादि दाहसंसार। नैव प्रेक्षते दीर्घसंसार।
भोगनिदानवती भोगजन्यापायपरंपराननेक्षित्र दृष्टान्तेन भाषपतिमूलारा-मधुमेघ मुखे पतन्तं क्षौद्रबिन्दुमिव । तडिओलंबो कुपभित्त्येकदेशेऽवलम्बमानः । पयादं प्रपतनं ।।
अर्थ-कूपके भित्तकि एक भागपर खडा हुआ मनुष्य मधुके छलेसे गिरते हुए मधुपिंदुओका आस्वाद लेने में ही मस्त रहता है परंतु कुएम गिरनेका भय मनमें नहीं लाता है वैसे निदान करनेवाला मनुष्य भोगाके पदार्थका आस्वादन लेनेमें निमम रहता है परंतु इससे मेरेको संसारमें दीर्घकालतक भ्रमण करना पडेगा "ऐसा विचार मनमें लाता नहीं है.
जालस्स जहा अंते रमंति मच्छा भयं अयाणंता ॥ तह संगादिसु जीवा रमंति संसारमगणंता ॥ १२७५ ॥