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आश्च.
मूलाराधना १२५६
गाथा
भनेकविप्रसहिता बिनाशिनी व भोगरतिः, अध्यात्मरतेस्तु भाषिताया न नाशो नापि विप इति कथषत्युत्तर
भोगरदीए "तो मित्रदो गिधा य होति मानिगागः ॥ अझप्परदीए सुभाविदाए णासो ण विग्घो वा ॥ १२७० ।। नाशो भोगरतेरस्ति प्रत्यूहाश्च सहस्रशः ॥
नाशोऽध्यात्मरतेनोस्ति न प्रत्यूहाः कुतम्चन ॥ १३१४ ॥ विजयोदया-भोगरवीप भोगरत्याः । णियदोणासो नियतो विनाशः। विधा य इंति विना भवन्ति । अदिबहुगा अतीच बहवः । अझप्परदीप, अध्यात्मरतेः सुभाविदाए सुष्टु भावितायाः। णासो नाशो न विद्यते । विग्या या पिना पान सति । नियस नश्वरतयाऽनश्वरतया, अषिघ्नतया, निर्षियतया च तयोःपश्यमिति भावः ।।
प्रकारांतरेणाऽपि तद्वैसादृश्यं दर्शयति
मुलारा--णियदो अवश्यंभावी । विम्यो अतरायः ॥ अंतरान्तरा तद्विधातनिमित्तावश्यकरणीयच्यासंगानुप्रवेशान् ॥ सुभाविवाए स्वभ्यस्तायाः । मिग्यो एकोऽयंतरायः सुभाषिताध्यात्मरतेः कृतकृत्यतया ज्याक्षेपासंभयात् ॥
भोगरति अनेक विघ्नोंसे भरी हुई है परंतु अध्यात्मरतिका अभ्यास करनेसे उसका न नाश होता है न उसमें कोई विघ्न भी उपस्थित होता है. इसका विवेचन---
अर्थ-भोगरतका सेवन करनेसे नियमसे आत्माका नाश होता है तथा इस रती में अनेक विन भी उपस्थित होते हैं. अध्यात्मरतीका उत्कृष्ट अभ्यास करनेपर आत्माका नाश भी नहीं होता है और विन भी नहीं आते हैं. अध्यात्मरति अनश्वर है अर्थात् नित्य है. और भोगरति नश्वर अर्थात् अनित्य है. भोगरति विघ्नोंसे युक्त होती है परंतु अध्यात्मरति निर्विघ्न है ऐसी इन दोनोंमें महान विषमता है.
इंद्रियसुखं शत्रुतया संकल्पनीय तथा च तत्रायरो जन्तोनिवृतेः अतीधिय मुखत्यमेष वीतरागत्वहेसुके संवरे इति मत्या सूरिधूलामणिराह
"दुक्खं उप्पादिता पुरिसा पुरिसस्स होदि जदि सत्तू ॥
अदिदुक्खं कदमाणा भोगा सत्तू किह ण हुती ।। १९७१ ॥