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मूदायधना
आश्वास
अर्थ-जो मनुष्य रममाण होने की इच्छा करता है, राग और कोप जिसके शांत हुए है वह पुरुष अध्यात्म | सुखमें जो कि आनंददायक है उसमें रममाण होवे. अर्थात अपनी आत्मानुभव में हमेशा तत्पर रहे. इष्टानिष्ट विषयकी
प्राप्ति होनेपर मनमें संकल्प होता है. और इस संकल्पसे गगद्वेषकी उत्पत्ति होती है. रागद्वषोंका त्याग कर द्रप्ति उत्पन्न करनेवाले आत्मानुभवरूप सुखमें प्रीति करे, क्योंकि अध्यात्मरतिके समान भोगरति है नहीं. कधम् ।
अप्पायचा अज्झपरदी भोगरमणं परायत्तं ।। भोगरदीए चइदो होदि ण अझप्परमणेण ॥ १२६९ ।। स्वस्थाध्यात्मरतिजन्तोनैव भोगरतिः पुनः ।।
भोगरत्यास्ति निर्मुक्तो परया न कदाचन ॥ १३ ॥ विजयोदया-अम्पायत्ता स्थापसा | अज्मपरदी मारमस्वरूपविषया रतिः । परद्रव्यामपेक्षणात् । भोमरमणं मोगरतिः परायत्तं परायत्ता परद्रव्यालंबनत्वात् । सेषां च कथंचिदेव साधियं करिवेष कस्यचिदेवेति । पतन स्वायत्ततया परायणतया या साम्यमाण्यात प्रकारांतरेणापि वैषम्य दर्शयति भोगरवीर चावो होदि मोगरत्या युती भवति, न प्रच्युतो भवति । भज्यप्परमण सध्यात्मरत्या
कथमध्यात्मरतिभोगरति तिरस्करोतीत्याइ---
मूलारा-अपायत्ता परद्रव्यनिरपेक्षत्वात् । अझप्परदी आत्मस्वरूपविषया रतिः । परायतं बहिन्यालबनत्वान् । चइदो त्यक्तः । भोगरनिनिमित्तपरल्याणां वचित्कदाचित्कथंचित्सान्निध्यात् । णेत्यादि । अध्यात्मरत्वालंबनस्य स्वद्रव्यस्य सवत्र सर्वदा सर्वधा सन्निहितत्वात् ।
अध्यात्मरति क्यों श्रेष्ठ है इसका उत्तर
अर्थ---स्वात्मानुभयमें रति करने के लिए अन्य द्रव्यकी अपेक्षा नहीं रहती है, भोगरतिमें अन्य पदाथोंका आश्रय लेना पडता है. अन्य पदाधाकी किसीको प्राप्ति होती है और किसीको नहीं भी होती है. अतः इन-दो रतिऑमें साम्य नहीं है. भोगरतीसे आत्मा च्युत होनेपर भी अध्यात्मरतिसे वह भ्रष्ट नहीं होता है. अतः इस हेतुसे भी अध्यात्मरति. भोगरतिस-श्रेष्ठ है.
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