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मूलाराधना १२३६
अर्थ- नियत धारण कर जिसने भोगप्राप्तिका निदान किया समझना चाहिये कि भोगके लिये ही उसने मुनित्रत धारण किये हैं न किं कर्मक्षय के लिये. भोगनिदान करनेसे भोगाभिलाषासे - भोगाकी उत्कंठासे चित्त व्याकुल होता है फोन काका स्वीकार करने के लिये युक्त होता है. जिससे संतपनेका अभाव होता हैं. जैसे कोई अपने इष्ट स्थानपर जारहा था मार्ग में किसी वृक्षका फल खानकी उसको इच्छा हुई तब वह वृक्षकी शाखाको फलके आशासे पकडकर खडा हुआ. इस कार्य में लगनेसे स्वष्ट स्थानको जानेमें उसने विघ्न ही पैदा किया ऐसा समझना चाहिये. इसी तरह यदि निदान करेगा तो उसने कर्मक्षयरूपकार्यमें स्वयं विघ्न उपस्थित किया है ऐसा समझना चाहिये. अथवा निदान करनेवाला मुनि भोगार्थ ही चारित्र धारण करता है. जैसे नोकर केवल द्रव्यके लिये स्वामीकी सेवा करता है.
आवडणत्थं जह ओसरणं मेसरस होइ मेसादो || सणिदाणबंभरं अन्यंभत्थं तहा होड़ || १९४३ ॥ भवत्यब्रह्मचर्यार्थ सनिदानं तपो यतः ॥
अवसारो विघातार्थं मेषस्येवास्ति मेषतः ॥ १२८४ ॥
विजयोदयाभावत्थं अभिघातार्थं । जह यथा भोसरणं अपराधः । मेसस्स हो मेस्य भवति । मेसादो मेषः । सणिवणारं सनिदानस्य प्रह्मचर्य । अन्वंभस्थं मैथुनार्थे । तहा होदि तथा भवति ॥
भोगाकांक्षा ब्रह्मचर्यं पालयतो भूयो मैथुनार्थमेव तद्भवति न प्रशमसुखार्थ इति दृष्टान्तेन स्पष्टयति-
मुहारा -- आवडत्थं अभिघातार्थै । ओसरणं अपसरणं । सणिदाण भोगा मे भूयासुरिति निदानयतो यतेः ॥ अर्थ --- एक बकरे से दूसरा बकरा जैसे अघात करनेके लिये पीछे हटता है उसी तरह निदानयुक्त मुनिका तमैथुनके लिये हैं ऐसा समझना चाहिये. अर्थात् भोगप्राप्ति की आशासे ही सनिदान सुनि व्रताचरण करता है. कर्मक्षय के लिये वह व्रत पालन करता है ऐसा मानना अयोग्य होगा.
जह वाणिया य पणियं लाभत्थं विक्किणंति लोभेण ॥ भोगाण पणिदभूदो सणिदाणो होइ तह धम्मो ॥ १२४४ ॥
आश्वास
६.
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