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मूलाराधना
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भोगका निदान करनेवाले मुनिका सुनिपना निंदनेलायक है ऐसा आचार्य कहते हैं.
अर्थ - भोगका निदान जिसने किया है वह मुनि अंतरंग में रागभावसे युक्त है. अर्थात् उसके मनमें मैथुनकी अभिलाश है इसलिये यह परिग्रह सहित ही है ऐसा समझना चाहिये. उसका मन मैथुन कर्ममें प्रवृत होनेसे वह मैथुन कर्मसे परावृत नहीं है ऐसा समझना चाहिये. वह शरीरसे ही शीलवतको धारण करनेवाले नटके समान भाव से सुनिपनासे च्युत हुआ है. ऐसा मुनिपना व्यर्थ है ऐसा अभिप्राय समझना.
रोगं कंखेज्ज जहा पडियारसुहस्त कारणे कोई |
तह अण्णेसदि दुक्खं सणिदाणो भोगतण्हाए || १२४६ ॥
आकांक्षति महादुःखं निदानी भोगतृष्णया ||
रोगित्वं प्रतिकाराय कुबुद्धिरिव कश्चन ॥ १२८७ ॥
विजयोदया--रोग कंग्रेज्ज व्याधिमभिपति । जहा कोड तथा कचित्। किमर्थ ? पडियारसुस कारण औषधिमनार्थं । तह तथा अविरदस्त अभ्यावृत्तस्य । अण्णेसदि अभ्पत दुक्खं दुः सनिदानः । भोगण्डा भोगतृष्णाया ||
कः सविदा
भोगनिदानविधायिनमुपहसति —
मूलारा - पडिगार सुहस्स कारणे औषधसेवाजन्यसुखप्राप्त्यर्थं अण्जेलदि प्रार्थयते ।
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अर्थ — जैसे कोई मनुष्य औषधसेवनका सुख प्राप्त करनेकी अभिलाषासे देहमें रोगोत्पत्तीकी इच्छा करता है. वैसे निदान करनेवाला मुनि भांगकी लालसा से दुःखोंको चाहता है ऐसा समझना चाहिये.
वंदे आसणत्थं बहेज्ज गरुगं सिले जहा कोइ ॥
तह भोगत्थं होदि हु संजमवहणं णिदाणेण । १२४७ ॥ भोगार्थं बहते साधुर्निदानित्वेन संयमम् ॥ स्कंधेनेव कुधीर्गुर्वीमासनाय महाशिलाम् ॥ १२८८ ।।
आश्वास
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