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मूलाराधना
आश्वास
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विजयोदया-अबांधणे यथेंधमेरनि तृप्यति । यथा वा समुद्रो नदीसहनैः । तथा जीवो न शक्यो भोगैस्तर्पयितुं ॥
भोगानामतर्पकत्वं सदृष्टान्तमाच - मूलारा-तिप्पेढुं नर्पयितुं ॥
अर्थ-जसे इंधनास अग्नि तप्त नहीं होता है, जैस हजारो नदीओसे समुद्र नम होता नहीं वैसे जीव भोगोंसे संतुष्ट होता नहीं है,
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देविदचक्कवट्टी य वासुदेवा य भोगभूमीया ॥ भोगेहिं ण तिप्पति हु तिप्पदि भोगेसु किह अण्णो ॥ १२६५ ।। भोगेषु भोगिगीर्वापायलकेशवचक्रिणः॥
न तृप्तिं ये तु गति सत्र तप्यति किं परे ।। १३०५ विजयोदया-दविंद देवानामधिपतयः, चमकना बासुदेवा अर्धचक्रवर्तिनः । भोगभूमिजाच भोगैर्न तृप्यन्ति। कथमन्यो अनस्तृप्तिमुपयाद्भोगैः ! सुलभामितभोगसाधनाश्विर जीविनः स्वतंत्रावामी । अन्ये तु भवशा जठरभरणमात्र. मपि कर्तुं अशक्ताः, स्वल्पायुषः, पराधीनवृत्तयश्च तृप्यतीति का कथा ॥
सुलमाभिमतभोगसाधनाचिरजीविनः स्वतंत्राश्च देवेंद्रादयोऽपि इंद्रियसुग्न तृप्यन्ति किं पुनरितर इति सकीतुकोत्प्रासं शिक्षयति
मूलारा-पष्टम् ॥
अर्थ-देवेन्द्र, चक्रवर्ती, अर्ब चक्रवर्ती अर्थात् नारायण, प्रतिनारायण, और भोगभूमिज ये मोगोंसे तन्न होते नहीं है. तो अन्यपुरुष उनसे कैसे तृप्त होंगे! देवेन्द्रादिकोंको मोमपदार्थ मुलम हैं, वे दीर्घायुषी है, और स्वतंत्र हैं, इनसे भिम जीव-हम तुम पेट भरने में भी असमर्थ हैं. स्वल्पायुषी है, और पराधीन है इस लिये इम तुम कैसे नम हो सकते हैं.
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