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मूलाधना
आश्वास
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विजयोदया-जाति केह भोगा यायन्तः केचन भोगाः । सन्धे पत्ता अणतनुसा ते । सर्वे माता अनंतवार तय 1 को णाम तत्थ भोगेस को नाम तेषु भोगषु विस्मथः लब्धपूजितपुः ॥
इंद्रियसुतेषनादरोत्पादनार्थमाह - मूलारा--अतखुप्ता अनंत बारान् । विभओ विस्मयः आश्चर्य । लविजडेसु प्राप्तत्यक्तेषु ।।
इंद्रियसुख यदि पूर्वकालमें कभी मिला ही नहीं और अब ही प्राप्त हुआ होगा तो विस्मय-हर्ष मानना योग्य है परंतु सर्व इंद्रिययुखोंका इस जीवने अनंत चार उपभोग लिया है और उनका त्याग किया है. अतः उनमें आचर्यचकित होना योग्य नहीं है, इस प्रकार इंद्रियमुवमें आचार्य अनादर उत्पम करत है
अर्थ-जितने भोग हैं ये सर्व अनंतवार जीवको प्राप्त हुए हैं इस लिए प्राप्त करके त्याग किए गए इन भागों में आश्चर्य ही क्या है ? मोग कुछ अलब्धपूर्व नहीं है अतः इनके प्राप्तिसे आश्चर्ययुक्त होना योग्य नहीं है.
मोगहष्णा निदरं दहति भवन्तं, सेव्यमानाः पुन गास्तामेव तृष्णा चढ़यंति ततो भोगेच्छां शिथिल्लो मवेनि बदति
जङ् जह भुंजइ भोगे तह तह भोगेसु बढ्दे नण्हा ॥ अम्गीव इंधणाई तण्हं दीविति से भोगा ॥ १२६२ ॥ यथा यथा निषेव्यन्ने भोगास्तृष्णा तथा तथा ॥
भोगा हि वर्धयन्त तामिधमानीव पावकम् । १३.६॥ विजयोदया-जाद जह मुंजदि भोग यथा यथा भोगाम्भुक्तेः । तह तह तथा तथा । भोगस पल देतण्हा भागषु चयते तथा अभिभावमा । यथा धिणाई इंधनानि । दीधितिवीपति । सहा तथा। तवं तृष्णदीपयन्ति । से तस्य भोक्तुभागाः । तथा चोक्त-तृष्णापिः परिदद्वनि न शांतिराला ॥ इष्टन्द्रियार्थविभवैः परिवृद्धिरेव ॥
भोगतृष्णाश्चिदाहशांतवे सेव्यमाना भोगास्तदभिवृद्धयर्थ एवं भयंत्यतस्तच्छांतये भोगेच्छामेव शिथिलयेति शिक्षार्थमाह ॥
मूलारा-अग्गीव अग्निमिव ॥ यह भोगतृष्णा हे क्षपक ! तेरेको निरंतर जला रही है. यदि भोगपदार्थों का तूं सेवन करेगा तो उसी