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मृलारावना
आधामः
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उपसंहारमाहमलारा-स्पग्रम ।।
अर्थ- इस लिये मान्यकुल और अमान्यकुल वास्तविक विचार करनेपर सुख और दुःखके विधाता नहीं हैं. संकल्पही जीवको प्रीति और अप्रीति उत्पन्न करता है अर्थात् संकल्पके साथ ग्रीति और अप्रीतिका अन्वय व्यतिरेक है. जप संकल्प उत्पन्न होता है तब ही सुख दुःखोंकी उत्पत्ति होती है. और जब संकल्प मनमें नहीं होता है तब सुख दुःखोंकी उत्पत्ति नहीं होती है इसलिये संकल्प ही सुख और दुःख उत्पन्न करता है ऐसा समझना चाहिये.
मानकषायसाध्योऽयं दोष पति कथयति सूरिः ।
कुणदि य माणो णीचागोदं पुरिस भवेसु बहएसु ॥ पत्ता हु णीचजोणी बहुसो माणेण लच्छिमदी ॥ १२३६ ॥ मीचगोत्रं नरं मानो विधत्ते पहुजन्मसु ॥
प्राप्ता लक्ष्मीमतिर्नीचा योनीर्मानेन भूरिशः ।। १२७७ ।। विजयोक्या-कुणदि य करोति । माणो अहंकारः। णीयागो पुरिस नीचाँश्रमस्येति नीचो पुरिसं भास्मानं । भषेसु जन्मसु । यमुगषु बहुषु । पत्ता प्राप्ता । णीचजोणी खुनीचैगाँधमेव । का? लछिमदी लक्ष्मीमती । केन निमित्तेन ? माणेपण मुरूपा गौचनानुकूला कुलीना येति गर्येण ॥
मानदोषमस्थानकेन स्थापयतिमहारा-माणेण सुरूपा, मुयौवना, कुलीना कन्याहवेत्वहंकारेण ॥ मानकषायसे जीपको नीचगोत्रकी प्राप्ति होती है ऐसा उदाहरण के द्वारा आचार्य कहते हैं.
अर्थ--मान कषायसे मनुष्य प्राणी अनेक जन्मोमें नीच गोत्रयुक्त होता है अर्थात् नीचकुलमें जन्मता IR है. मैं रूपवती सुंदरी हूं. तरूणीहूं और कुलीन हूं ऐसा तीव्र मानकषाय लक्ष्मीमतीको हुआ था जिससे उसको अनेक जन्मोंमें नीचकुलमें उत्पन्न होना पड़ा था.
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