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मूलाराधना
आश्वासः
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समझेगा. जिसने जो प्राप्त किया है उसको वह अच्छा समझता है. जो चीज अलभ्य है वह अच्छी होनेपरभी मेरा उससे कुछ प्रयोजन नहीं है ऐसा समझकर प्राप्त चीजही अच्छी है ऐसा वह मन में समझता है. तात्पर्य यह है कि मोहके वश होकर जीव नीचपनाकोभी अच्छा समझते हैं.
णीचत्तणं व जो उच्चत्तं पेच्छेन्ज भावदो तस्स ॥ णीचत्तणेव उच्चत्तणे वि दुक्खं ण किं होज ।। १२३४ ॥ यो नीचत्वमिवोच्चत्वं विकल्पयति मानसे ॥
तस्योच्चत्वेन किं दुःखं नीचत्वमिव जायते ॥ १२७५ ॥ विजयोदया-पतविपरीतार्थोसरा गाथा । स्पष्टतया वस्तुस्थिति नापेक्षते । संकल्यायसाप्रीतित्यनुभवसिद्ध' मिलस्य जगरा इति पदसिमानुसम्वैर्गोत्रलेसी न सुखदुःखयोर्भाधाभाषौ च भवतः संकल्पात् ॥
मूलारा-पष्टम् __ अर्थ जो जीव नीचपनाके समान उच्चपनाको देखता है उसको उच्यतामभी नीचत्वके समान दु:खही अनुभवमें आता है. अभिप्राय यह है कि, संकल्पसे उत्पम हुई प्रीति अथरा दुःखसे वस्तुका यथार्थ स्वरूप नहीं जाना जाता है. यह अनुभवसिद्ध सत्य है. संकल्पसे उच्च गोत्रमें भी प्रीति अप्रीति उत्पन्न होती है. संकल्पसे नीचत्वमें भी प्रीति और अप्रीति उत्पन्न होती है.
तह्मा ण उच्चणीचत्तणाई पीदि करेंति दुःखं वा ॥ संकप्पो से पीदी करेदि दुक्खं च जीवस्स || १२३५ ।। ततो नोचत्वनीचत्वं कारणं प्रीतिदुःखयोः ॥
परमुच्चस्वनीचस्वसंकल्पः कारणं तयोः ॥ १२७६ ।। विजयोध्या-तह्मा मस्मात् । उच्चनीचत्तणाणि मान्यामान्यकुलवानि । न करेंति दुक्स वा न कुरुतः प्रीति दुःखं या । सति संकल्प भावादसति अभावाच ।।
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