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मूलाराधना
आश्वासः
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'अर्थ-जीव उच्चकुलकी प्राप्ति होनेसे प्रीतियुक्त होता है उसका कारण उच्चकुल हैं ऐसा नहीं समझना चाहिये. मैं उच्चकुलमें उत्पन्न हुआ ऐसा विचार उत्पन्न होनेसे जीव अतिशय खुश होता है. यदि ऐसा संकल्प मनमें न होगा तो मान्य कुलकी प्राप्ति होनेपर भी वह पीनियुक्त नहीं होता है. उसी तरह नीच कुल भी दुःखका कारण नहीं है, किंतु संकल्पही दुःखका कारण होता है. कषाय जिसमें प्रचुर है उस जीवको उससे दुःख होता है नीचगोत्र उसका कारण नहीं है. गाथामें कपाय शब्द सामान्यतया प्रयुक्त किया है परंतु यहां वह शब्द प्रकरण वश मानकषायका पानक समझना चाहिये. अर्थात् मानकषायसे ही जीवको दुःख होता है. नीचगोत्रत्व उसका कारण नहीं है.
पव प्रीतिपरिक्षापी सकरपायापतिसरा ...
उच्चत्तण व जो णीचर्स पिच्छेज्ज भावदो तस्स ॥ उच्चवणे व णीचत्तणे वि पीदी ण किं होज्ज ।। १२३३ ।। उच्चत्वमिय नीयत्वं चेतसा यो निरीक्षते ॥
उच्चत्य इव नीचत्वे किमसौन सुखायते ॥ १२७४ ॥ विजयोषया-उबसणं व उसगाँव मिष जो णीचत पेच्छदि यो भौगों प्रेक्षते । इदं चंडालस्यं चरमिति भावशदोऽनेकार्थयाच्यपि इडचिसषाची। यत् येन लब्धं तत्तस्य शोभनं । अलभ्येन शोभनेगापिकिं तेनेति मनसिकरोति यदा तदा तय प्रीतिरस्य जायते इति वदति-उच्चसणे विमान्य कुलव इन नीचत्तणेऽवि भीगोप्रवेऽपि । पीदी किं ण होज्ज । प्रीतिः किं न भवेत् । भवत्येवेति यावत् ॥
संकल्पायत्तौ प्रीतिपरितापौ इति स्पष्टयितुं गाथाद्वयमाचष्टे
मूलारा---भावदो चित्तेन । इदं चांडालत्वं वरमित्याविरूपेण भावयेदित्यर्थः । पीवी योन लम् तसस्य शोभनं अलभ्येन शोभनेनापि किं तेनेति यो यदा संकल्प करोति सस्य तदा तत्र प्रीतिर्भवत्येव तथानुभवान।
अर्थ-जो मनुष्य उच्चगोत्रके समान नीच गोषको भी देखता है अर्थात् चांडालपनाभी अच्छा है ऐसा जो मानता है उसको उच्चत्वके समान नीचत्वमेंभी प्रीति क्यों न होगी अर्थात् वह नीचत्वको भी अच्छा ही
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