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मूलाराधना
आश्वास
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बंधोऽपि कर्मबंधोऽपि सिया सरिसो स्यात्सहशः। कर्थ ? जवि सारसो यदि सखशः। कायिकपदोसो कायिकी क्रिया प्रखे. पश्च यदि समः स्यात्करणसामाग्यात्कार्यस्यापि बंधस्य सारथ, अभ्यथा न सहशता । तीमध्यमवरूपाः परिणामा तीय, मध्य, मंदं च पंधमापादयन्ति । इति भावः ॥
अर्थ-मन, वचन और शरीर ऐसे तीन योग क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कपाय और स्पर्शनादिक पांच इंद्रियां इनके द्वारा क्रमसे हिंसा समाप्त होती है, मनसे द्वेष करना, मैं द्वेषयुक्त हुआ हूं ऐसा बचनसे कहना यह वाग्देष है. शरीरके द्वारा द्वेप करना अर्थात मुख लाल होना, भोहे चक्र होना वगैरह कायद्रूप है.
मनके द्वारा हिंगाके उपकरण लेना, मैं शस्त्रग्रहण करता हूं ऐसा बोलना, हाथ पांच इन्यादिकसे ठोकना. ऐसे अधिकरणके तीन भेद है, मनसे उठने का विचार करना, वचनसे मैं ठोकूँगा. नाडन करूंगा ऐसा बोलना, शरीरस हिलना फिरना, यह सब कायिकी क्रिया है. में दुःग्य उत्पन्न करूंगा एमा मनसे विचार करना, म तुमकी दाग्दिन करूंगा एसे वचनसे बोलना, हस्तादिकांपे ताडन करना यह कायकी क्रिपा है. प्राणोंसे में प्राणीको अलग करूंगा ऐसा विचार करना, मैं मारूमा ऐमा मृबसे बोलना बाक्माणातिपात है. शरीरसे मारनकी क्रिया करना कामिकमाणातिपान है, थे पांच क्रियाये कोई पुरूप क्रोधस, कोई मानममायासे और लोभसे करते हैं.
क्रोधादिकर-शस्त्र ग्रहण करना क्रोधादि निमित्त कायपरिस्पंद कहा जाता है. क्रोधादिकमे दूसरों को संताप उत्पन्न करना, कोधादिकसे प्राणवध करना, स्पर्शनादि इंद्रियोंके निमित्तसे भी द्वेष उत्पन्न होता है. इंद्रियसु. खके लिये फल, कोमल कोंपल, पुष्प वगरहका छेदन करनका साधन ग्रहण करना, इंद्रियसुखके लिये ही विषयका सानिध्य पाकर शरीरकी बहुत हालचाल करना, दूसरोंको गाढ आलिंगन देना, नखोंसे क्षत करना, मांसादिकोंके लिये प्राणिऑको पाणसे वियुक्त करना ये सब हिंसा क्रियायें है.
इस हिंसाक्रियासे उत्पन्न होनेवाला कर्मबंध समान होता है अथवा कम जादा होता है. इस शंका का उत्तर आचार्य ऐसा देते हैं
कर्म बंध कथंचित् समान होता है. अर्थात् शरीरके द्वारा होनेवाली क्रिया और प्रद्वेष यदि समान होगा तो उससे कर्मसंघ भी समान होगा अन्यथा नहीं. कारणों में सामान्यता यदि होगी तो कार्य में अर्थात् कर्मबंध में