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मृलाराधना
भास्थासा
___अब व्रतोंकी भावनाओंका आचार्य वर्णन करते हैं. चारित्रके गुप्ति समिति और अहिंसादिक व्रत ऐसे ते। प्रकार हैं. भावनाओंसे व्रतोंमें स्थिरता उत्पन्न होती हैं. एकेक व्रतकी पांच २ भावनायें आचार्योने कही है. प्रथमतः अहिंसा व्रतकी भावनाओंका आचार्य वर्णन करते हैं--
एषणासमिति, आदाननिक्षेपणासमिति, ईर्यासमिति, मनोगुप्ति और आलोकित पानभोजन ऐसी पांच अहिंसात्रतकी भावनाए हैं.
अब एपणा समितीका वर्णन-मिक्षाकाल, वृभुक्षाकाल और अक्ग्रहकाल ऐसे तीन काल हैं. गांव, शहर बगैरह स्थानोंमें इतना काल व्यतीत होनेपर आहार तयार होता है, अमुक महिनेमें, अमुक कुलका, अमुक गल्लीका अमुक भोजन काल हे यह भोजनकालका वर्णन है.
बुभुक्षाकाल-आज मेरेको भूख तीब लगी है या मंद लगी है. मरे शरीरकी तबियत कैसी है इसका विचार करना यह बुभुक्षाकालका स्वरूप है.
. अमुक नियम मैने कल ग्रहण किया था. इस तरहका आहार मैनें भक्षण न करनेका नियम लिया था, आज मेरा यह नियम है इस प्रकार विचार करना इसको अवग्रहकाल कहते हैं. . - इतना विचार होनेपर आहार के लिय जब मुनि निकलते हैं तब आगे' चार हाथ प्रमाण जमीनका निरीक्षण कर जलदी, अति सावकाश और गडबडी ऐसे दोपोंका त्यागकर गमन करना चाहिये, जाते समय अपने हाथ नीचे छोडकर चलना चाहिये. दूर अन्तरपर पांव रखते हुए नही जाना चाहिये. निर्विकार होकर और अपना मस्तक थोडासा नीच करके जाना चाहिये. जिसमें कीचड नही है, पानी फैला दुआ नहीं है, जो उस और हरितकाय जंतुओंसे रहित है ऐसे मार्गसे प्रयाण करना चाहिये. मार्गमें गदहा, ऊंट, बैल, हाथी. घोडा, भैसा, कुत्ता और कलह करने वाले लोक इनका दूरसेही त्याम करे अर्थात् इनके समीपस गमन नहीं करना चाहिये. आहार करनेवाले पशु पक्षी ऑको अपनेसे भीति उत्पम न हो और वे अपना खाना छोडकर न भागे इस तरहसे मुनिको आहारार्थ जाना चाहिये.
रास्ते में जमीनसे समान्तर फलक पत्थर वगेरे चीज होगी, अथवा दूसरे मार्गमें प्रवेश करना पडे, अथवा भिन्न वर्णकी जमीनपरसे चलना हो तो जहाँसे भिन्नवर्णका प्रारंभ हुआ है वहां खड़े होकर प्रथम अपने सर्व अंग परसे पिच्छिका फिरानी चाहिये. धानके छिलके गोबर, भस्मका ढेर, भूसा, वृक्षके पत्ते, पत्थर फलकादिकोंका परिहार करके गमन करना चाहिये.