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मूलाराधना
भाश्चामा
शल्य व्रतपरिणामोंको घातते हैं अतः उनका त्याग करना चाहिये ऐसा क्षयकको कहते हैं.
अर्थ--शल्यरहित यतीके संपूर्ण महाव्रतोंका संरक्षण होता है. परंतु जिन्होंने शल्याको आश्रय दिया है उनके व्रत माया, मिथ्यात और निदान एनो नाम,
विशेषार्थ--जो प्राणीके शरीरमें मवेश कर उसका बात करता है उसको शल्य कहते हैं. अर्थात बाण, कंटक वगैरह शरीरादिकसे प्रवेश कर उसको पीडित करते हैं इसलिये उनका शल्य कहते हैं जैसे प्राणिको दुःख देने में कारणीभूत ऐसे अंतरंग परिणामोंको वे भी बाणादिकके समान दुःख देनेवाले होने से शल्य कहते हैं.
शंका---एपणासमितीका अभाव होनेसे संपूर्ण व्रतोंका नाश नहीं होता है परंतु फक्त आहंसावत का ही घात होता है वैसे इन शल्योंसे सर्व व्रताका घात नहीं होता है.
उत्तर-गाथामें 'सर्व' शब्द है इससे सर्व ताका नाश होता है ऐसा सूचित होता है.
शंका-शयोंसे महायतके समान अणुव्रतों का भी नाश होता है परंतु ग्रंथकारने महाव्रतोंका नाश होता है ऐसा क्यों कहा है.
उत्तर--अशुव्रतोंका और महानताकाभी शल्यास नाश होता है परंतु यहाँ महावतोंका विवेचन करना ग्रंथकारको अभीष्ट है अतः महायतोंका शल्य घात करते हैं ऐसा ग्रंथकारने कहा है.
शंका-हिंसादिक पासे विरक्त होना यह अतोंका लक्षण है तो मिथ्यात्वादिक गुल्य जीवमें रहने पर भी प्रत अर्थात् विरक्तिपरिणाम रह सकते हैं. अतः शल्यरहित पुरुषकेही महावत होते हैं ऐसा कहना योग्य नहीं है. 18
उत्तर-व्रतोंका शल्यसे घात होता है. वे शल्प तीन प्रकारके माया मिथ्यात्व और निदान ऐसे हैं. यहां सम्यचारित्रको मोक्षमार्ग कहा है. परंतु बिना सम्यग्दर्शन और सभ्यग्नानक चरित्रको मोक्षमार्गता आती नहीं है... मिथ्यात्वपरिणाम आत्मामें रहनेसे सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होते ही नहीं. क्योंकि मिथ्यत्व इनका बिरोधी है. वह इनको उत्पन्न होने नहीं देता है. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और चारित्र इनको रत्नत्रय कहते हैं. । रत्नत्रयकी पूर्णताको मोक्ष कहते हैं. अनंतज्ञानादिक अनंतचतुष्टयकी प्राप्ति करने में चित्तको न लगाकर अन्यवाताम अपने मनको एकाग्र करना जैसे इस तपसे मेरेको इंद्रादि पदवीकी प्रानि होनी चाहिये ऐसी अभिलाषा करना निदान शल्य है. यह शल्य सम्यग्दर्शन का नाश करता है और परंपरया व्रताका भी बात करता है. मनके द्वारा