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मूलाराधना
आश्वासः
भावनामाहात्म्यमाहमूलारा-पील पीडां । विराधना । पासुत्तो निर्भरनिद्राक्रांत: । समुहदो मूर्छितः । चंदतो चेतयमानः ।
अर्थ-इन व्रतोंकी भावनाओंका अभ्यास करनेसे यति इन भावनाओंसे संस्कृत होता है. तब वह गाढ सोता हुआ भी अथवा मूर्षित हुआ भी अपने नतोंको अतिचार युक्त नहीं करता है. तो जाग्रत अर्थात् सावधान रहनेवाला वह मुनि अपने व्रतोंको कैसे दक्षित होने देगा? अर्थात् दिनरात व्रतोंकी भावनाओंका अभ्यास करनेसे उसके त हमेशा निरतीचार रहकर उत्तरोत्तर उन्नतावस्था की प्राप्ति कर लेते हैं,
एदाहिं भावणाहिं हु तम्हा भावेहि अप्पमत्तो तं ॥ अन्छिहाणि अखंडाणि ते भविसंति हु वदाणि || १२१३ ॥ त्वमतः समितीः पंच भावयस्वैकमानसः ॥ महावतान्यवदामि निद्रिाणि भवति ।।१२५३॥ भावनाः समितिगुप्त यो यतर्वर्धयन्ति फलद महाव्रतम् ।। शर्मकारि रजसां निरासकाश्चारुसस्थमिव कालवृष्टयः ॥ १२५४ ।।
इति महाव्रतवृष्टिः ।। विजयोदया-पदाहिं एताभिः । भाषणाहि भावनाभिः । तम्हा तस्मात् । भावेहि भाषय । अप्पमसो से अप्रमत्तस्त्वं । अनिउद्दावि अछिद्राणि । नैरंतयण प्रवृत्तानि | अखडानि संपूर्णानि तब भविष्यति मतानि ।
एवं प्रकाशितस्वरूपमाहात्म्यासु भावनासु संन्यासिनं प्रयुक्त
मूलारा-मात्रेहि संस्कुरु स्वमात्मानं । अपिछदागि नैरतर्ये प्रवृत्तानि । निर्वाषाणि वा । अखंडाणि संपूर्णानि । ते तव । सप्ताहम्भावनानिष्ठस्य ॥
अर्थ-इस वास्ते हे क्षपक ! तुम अप्रमत्त अर्थात् निदोष आचरणयुक्त होकर इन भावनाओंका अभ्यास करो. तुम जब भावनामय होंगे तब तुमारे संपूर्ण ब्रत निरंतर टिक सकेंगे और पूर्णावस्थाको पास कर लेंगे. अतः हे क्षपक ! तुम अपनेको भावनाओंसे सुसंस्कृत बनाओ.
मनाओंस सुसंस्कार अत निरंतर बाप आचरणयुक्ती