________________
मूलाधना
आश्वासः
११५१
देहस्याक्षमयत्वेन देहसौख्याय गृहतः ।।
अक्षसाल्पामिलापोऽस्ति सकलस्य परिग्रहः ॥ १२०१॥ विजयोन्या-द्रियासुस्वाभिलाषः कर्मबंधनिमित्तो मुमुक्षुणा त्याज्यः । स परिग्रहग्रहो बलादापततीप्ति ध्याचईदिययं सरीरं स्पर्शनादिपंचेन्द्रियाधारस्वात् । परिग्रहं चचेलमावरणादिकं इंद्रियमुखार्थमेव गृण्वाति । वातातपायनभिमतस्पर्शनिषेधार्थ आत्मशरीरे वस्त्रालंकारादिभिरलंकृते पराभिलाषमुत्याध तदंगासंगजनितप्रीत्यर्थतया अभिमतमापादयति । सेवनाचर्थ च तत् इंद्रियसुखामिलापो ग्रंथ गुरुतः सिध्यति । स्वाध्यायध्यानाख्ययोस्तपसो विघ्नकारी परिग्रहस्तदुभयं चतरेण न संघरनिर्जरे ।।
इंद्रियसुखाभिलापः कर्मयंधन निबंधनत्यान्मुमुक्षुभिस्त्याज्य एव । स च परिग्रह्मणेन बलासिध्यति इनि न्याचष्टे-.
मूलारा-इंद्रियमयं स्पर्श नादीन्द्रियाधारत्वात् । गधे घेलपावरणादिकान् । देहमोक्वत्थं बातातपाद्यनिषेधादिना शरीरस्व स्वास्थ्यमुत्वादायितुं सिद्धो निश्चितः ।।
अर्थ-इंद्रियसुखाम अभिलाषा करनेसे कर्मबंध होता है अतः मुमुक्षु इंद्रियसुत्रकी अभिलाषा नहीं करते है. जिन्होंने परिग्रहाँका स्वीकार किया है उनको नियमसे कर्मबंध होता है. इस विषयका स्पष्टीकरण-शरीर पंचेंद्रियों का आधार है अतः उसको इंद्रियमय कहते हैं. जीव स्पर्शनादि इंद्रियसुखके लिए क्वादिपरिग्रहका स्वीकार करता है. हवा, धूप वगैरहका अनिष्ट स्पर्श शरीरको न होवे इस हेतुसे वस्त्रादिकोंका जीव स्वीकार करता है. जय जीव अपना शरीर बखादिक्रोंसे अलंकृत करता है तब अपनेमें दूसरों की अभिलाषा उत्पन्न करके उसके शरीरके सहवासकी प्रीति उत्पन्न करके अपना इष्ट साध्य करता है. दसरेके शरीरसुखकी प्राप्ति करनेके लिए अपने शरीरको अलंकारादिसे सजाता है. अतः ग्रंथ-परिग्रह धारण करनेका मूल कारण इंद्रियसुखकी अभिलाषा है यह सिद्ध होता है. इस परिग्रहसे स्वाध्याय और ध्यानकी सिद्धि होती नहीं. स्वाध्याय और ध्यान के बिना कर्मके संघर और निर्जराके अभावमें संपूर्ण कर्मोंका नाश कैसा होगा. ? तयोरभावे कुतो निरचशेषकर्मापायो भवतीति कथयति
गंथरस गहणरक्खणसारवणाणि णियदं करेमाणो। विक्खित्तमणो उझाणं उवेदि कह मुक्कसज्झाओ॥ ११६४ ॥
१९५४