________________
लाधिना
संगव्यासंगमुखोपस्थितं भवान्तरप्राप्यं दोषमाख्यातिमूलारा--धदिदहिदओ आसक्तचित्तः । णीचं कामं शिविकोद्वनादिकं कुर्वन्वर्ततेऽपि । आहारहेतुं आहारमात्र
आश्वासः
मुद्दिश्य ॥
परिग्रहसे उत्पन्न हुआ दोष अनेक भवमें जीवके साथ रहकर दुःख उत्पन्न करता है इस अभिप्रायका वर्णन
अर्थ-जिसका मन परिग्रहासक्त हुआ है ऐसा मनुष्य अनेक भवोंमें दरिद्री होता है. आहारकी अभिलाषा करके महनीय कार करके लिए भी उतार होता है. अर्थात् पालखी उठाकर अन्य स्थानमें ले जाना, श्रीमान पुरुषों के जूते उठाना, विष्ठा, मूत वगैरह अपवित्र पदार्थ निकालना इत्यादिक नीच कार्य करता है.
विविहाओ जायणाओ पावदि परभवगदो वि धणहेदु || . लुडो पंपागहिदो हाहाभूदो किलिरसदि य ॥ १९६६ ॥ लभते यातनावित्रा ग्रंथहेतून्भवान्तरे ॥
संलिइयत्याशया ग्रस्तो हाहाभूतोऽयस्लुब्धधीः॥ १२०४॥ बिजयोपया-षिविहामो जायणाभो पाउदि विविधा यातनाः प्राप्स्यति । परभवगतोपि धननिमित्तं लुब्धः आशया प्रकृष्टया गृहीतो हा मम क्लेशशतं कुर्वतोपि मम धनं न मयति, जातं वा नष्टमिति कृतहाहाकारः क्लिश्यति ।
मूलारा-हाहा---मम क्लेशशतं कुर्वतोऽपि धनं न संपनते । संपन या विनश्यति इति कृतहाहाकारः ।।
अर्थ--परिग्रहासक्त मनुष्य अन्य जन्ममें भी धनके लिए अनेक आपत्तिओंको प्राप्त होता है. उसकी आशा अत्यंत पढ़ती ही जाती है. सेफदो प्रयत्न करने पर भी मेरे धनकी वृद्धि होती नहीं अथवा धनकी वृद्धि होकर भी वह नष्ट होता है ऐसे विचार कर वह महान् दुःखी होता है.
११५६
एदेसि दोसाणं मुंचइ गंथजहणेण सव्वेसि ॥ तविक्रीया य गुणा लभदि य गंथस्स जणेण ॥ ११६७ ॥