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दुलाराधना
आश्चा
आभिः समितिभियोगी लोक षजीवसंकुले ॥
दोष साविभिनव लिप्यंत विहरन्नपि ॥ १२३८ ।। विजयोदया-पदाहि एताभिः । सदा जुत्तो सदा युक्तः । जगम्मि घिहरमाणो दु जगति विवरनपि । कीरशो! जीवणिकायाउले षड्जीवनिकायाकीर्ण । हिंसादीदि हिमादिभिः। लिप्पदि न लिप्यते साधुः । आविप्राइंशन परितापन, संघट्टनं, अंगन्यूनताकरणादिपरिग्रहः । समितिषु प्रवर्तमानः प्रमादरद्वितः प्रमत्सयोगाप्राणव्यपरोपर्ण हिंसरयुच्यते । हिंसादिसहितामि कर्माणि हिंसादिशब्देनोच्यते । कार्य कारणशष्यप्रवृत्तिः प्रतीततरत्वात् । यद्यपि पिवर्जननिमित्तगुणा. चितं तत्र प्रवर्तमानमपि तेन न लिप्यते यथा स्नेतगुणान्वितं नामरसपत्रं काचनीलनीरवर्तमानमपि नांधुना लिप्यते । निरंतरनिचितजीवनिकायाकुलेऽपि जगत्ति संचरनपि मुमिन लिप्यते अप्रमत्ततया गवृत्तः पंचसु समितिविति॥
समितिसंततसमाहितस्य हिंसाविद्वारायातपातकबंधामा भावयति
मूलारा-हिंसादीहिं प्राणातिपातपरिवापनसंघटनांगन्यूनताकरणादिषड्जीवोपघातावृतादिजनितपातकैः । ण लिप्पदि न बध्यते ॥
अर्थ-इन पांच समितिओंका पालन करनेवाला मुनि जीवसमुदायसे भरे हुए जगत में हिंसादिक पातकोंसे अलिप्त रहता है. आदिशादसे परितापन, अर्थात् तकलीफ देना, संघट्टन जीवोंको परस्परमें मिलाना, उनके अंग कम करना, इत्यादि दोषोंसे समिति धारक यति लिन नहीं होता है. जो समितिओको पालता है. वह प्रमादरहित होता है. ममादसे प्राणांका घात करनाही हिंसा है. हिंसादि सहित कमाको हिंसादि कहते हैं अर्थात् हिसादिक कारण हैं और उसस होनेवाली क्रियायें कार्य है. यहाँ कायम कारणका उपचार करके हिंसादिकक कार्यकोमी हिंसा कह सकते हैं. त्यागगुणयुक्त यति विपर्योस भरे हुए इस जगतमें रहकरभी विषयों में आसक्त होते नहीं है. अतः वे पापसे लिप्त नहीं होत है. जैस स्नेह गुणसे युक्त कमलपत्र वैडूयक समान नीलजल में रहकर भी उसस लिम होता नहीं. निरंतर प्राणिसे भरे हुए इस लोकमें मुनि विहार करते हैं तो भी चे प्रमादरहित होकर पांच समितिओंमें प्रवृत्त होते हैं अतः पापास लिप्त होते ही नहीं.
श
पउमणिपतं व जहा उदयेण ण लिप्पदि सिणेहगुणजुत्तं ।। तह समिदीहिं ण लिप्पइ साधू काएसु इरियंतो ॥ १२.१ ॥
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