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मूलाराधना
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कीर्ति, लोकादर, स्वर्गदिसुख वगैरहकी इच्छा धारण न करते हुए मनोयोगको केवल आत्मकल्याणकी भावनासे रोकना अर्थात् रागद्वेषादि कार्योंकी मनोयोग से उत्पत्ति न होने देना इसको भी मनोगुप्ति कहते हैं. वाम्गुप्तीका स्वरूप – 'अलियादिवचोगुत्ती मोणं वा होइ वचिगुत्ती ' जो विपरीत अर्थका ज्ञान करमें हेतु होगा, जो दूसरोंको दुःख उत्पन्न करनेमें निमित्त होगा. जिससे अधर्म वृद्धि होगी ऐसे भाषणसे परावृत होना यह वचनगुप्ति है.
शंका- वचन पुगलमय हैं और वे विपरीतार्थका ज्ञान कराने में हेतु है. किसी पदार्थसे आत्माको हटा ... में वचन समर्थ हैं. परंतु कर्मका संवर करनेमें शब्द अर्थात् वचन समर्थ नहीं है. क्यों कि वे आत्माका परिणाम अर्थात् धर्म नही है. शब्दादिक आत्मघम नही हैं.
म्यूलीक -असत्य, कठोर, आत्मप्रशंसायुक्त परनिंदा करनेवाला, जिससे परप्राणिओको उपद्रव होत है ऐसे भाषण से आत्मा परावृत्त होना यह वाग्गुप्ति है अर्थात् वाग्गुप्ति उपर्युक्त भाषणों में आत्माको प्रवृत्त नहीं करती है. जिस भाषण में प्रवृधि करनेवाला आत्मा अशुभ कर्मको स्वीकार करता है ऐसे भाषण से परावृत होना वागुप्ति है. अर्थात् विशिष्ट धश्वनका आत्मा त्याग करता है उसीको दाग्गुप्ति कहना चाहिये. अथवा संपूर्ण प्रकारके वचनों का त्याग करना अर्थात् मौन धारण करना इसको भी जाग्गुप्ति कहते हैं. जो आत्मा अयोग्य वचन में प्रवृत्ति नहीं करता है परंतु विचारपूर्वक योग्य भाषण बोलता है अथवा नहीं भी यह उसकी वाग्गुप्ति है परंतु योग्य भाषण बोलना यह भाषा समिति है इस प्रकार गुप्ति और समिति में अंतर है. मौन धारण करना यह वारगुप्ति है. योग्य भाषण में प्रवृत्ति करना समिति है और गुप्तिमें किसी भाषाको अर्थात् वचनको उत्पन्न न करना यह गुप्ति है ऐसा इन दोनों में स्पष्ट भेद है.
काय करियाणियची काउस्सग्गो सरीरगे गुप्ती ॥ हिंसादिणियत्ती वा सरीरगुती हवदि दिठ्ठा ॥ काय क्रियानिवृत्तिर्वा देहनिर्ममतापि वा ॥ हिंसादिभ्यो निवृत्तिर्वा वपुषो गुप्तिरिष्यते ॥ १२२८ ॥
११८८ ॥
अश्वास
१९८५