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मूलाराधना|
१९९५
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| यदि वेदना होती हो तो सत्य समझना न हो तो असत्य समझना. वेदनाका सद्भाव और असद्भावकी अपेक्षा इसको सत्यासत्य कहते हैं.
सामावणी-धर्मोपदेश करना इसको पन्जापनी भाषा कहते हैं. यह भाषा अनेक लोगोंको उद्देश्य कर कही जाती है, कोई मनःपूर्वक सुनते हैं और कोई सुनते नहीं. इसकी अपेक्षा इसको असत्यम्पा कहते हैं,
पञ्चक्रवाणी-किसीने गुरूका अपने तरफ लक्ष न खीचकरके कहा कि मैंने इतने कालतक क्षीरादिक पदाथोंका त्याग किया है ऐसा कहा. कार्यातरको उद्दश करके वह करो एसा गुरूने कहा- प्रत्याख्यानकी मर्यादाका काल पूर्ण नहीं हुआ नब तक वह एकांतसत्य नहीं है. गुरूके वचनानुसार प्रवृत्तं हुआ है इस यास्ते असत्य भी नहीं है.
इच्छानुलोमा-ज्वस्तिमनुष्यने पूछा घी और शकर मिला हुआ दूध अच्छा नहीं है यदि दूसरा कहंगा कि वह अच्छा है. तो मधुरतादिक गुणोंका उसमें सद्भाव देखकर वह शोभन है ऐसा कहना योग्य है. परन्तु ज्वर सृद्धिको वह निमित्त होता है इस अपेक्षासे यह शोभन नहीं है अतः सर्वथा असत्य और सत्य नहीं है इसलिए इस वचन में उभयारमकता है.
समयवयणी य तहा असञ्चमोसा य अठमी भासा ।।
णवमी अणक्खरगदा असच्चमोसा हरदिया ॥ ११९६ ॥ विजयोइया संसपथयणी किमयं स्थाणुरुत पुरुष इत्याविका इयोरकस्य सद्भापमितरस्याभावं सापेक्ष्य द्विरूपता । अणवस्वरगदा अंगुलिस्फोटाविध्वनिः कलाकृतसंकेतपुरुषापेक्षया प्रतीतिनिमित्ततामनिमिसतां च प्रतिपयते इत्युभयरूण ।।
मूलाराधना—संसयवयणी किमचं स्थाणुरुत पुरुष इत्यादि संदिग्धराक । अणक्खरगदा अक्षरहीना यथा अंगुलिस्फोटादिदाब्दाः कृतसंकेतस्येवार्थप्रतिपत्तिनिमित्तवान् । सिद्धांतरत्नमालायां पुनरित्थमाम्नातम्
याचनी ज्ञापनी गृछानयनी संशयन्यपि || आह्वानीच्छानुकूला बाक प्रत्याख्यान्यवनक्षरा || असत्यमोषभाषेति नवधा घोधिना जिनः ।।