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मूलाराश्ना
आश्वास
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२ सम्मतिसत्य-सम्मति शब्दसे आकृतिका ग्रहण होता है. गजेंद्र, नरेंद्र इत्यादिक शब्द शुभ लक्षणके घोतक हैं, कोई पदार्थ स्वतः शुभ लक्षणसंपन्म दीखते हैं अतः उसमें स्वतः ईश्वरपना-संपनपना दृष्टिगोचर होता है. उसके ईश्वरपनाका आधार लेकर अन्य गज-हाणी अथवा मनुष्य में उसका प्रयोग करते हैं ऐसे शब्दको सम्मति सत्य कहते हैं. जैसे गजकी विशालता देखकर उसको गजेंद्र कहना. किसी मनुष्यमें राजाके समान संपन्नता देखकर उसको सम लोक नरेंद्र कहते हैं. राजा, राव, राणा वगैरह शब्द सम्मतिसत्य है.
स्थापना सत्य-अईन्, इंद्र और स्कंद वगैरह शब्द सद्भाब असद्भाव स्थापनाके विषय है. इनको स्थापना सत्य कहते हैं, अरिहनन मोहनीयकर्मका नाश होना, रजोहनन ज्ञानावरण और दर्शनावरणका नाश होना इत्यादिक क्रिया अन्तिमें रहती हैं अतः उसमें असत्यपनाका संशय लेना योग्य नहीं है. अर्हन्तके समान प्रतिमाका :आकार रहता है अतः अहेन्तकी उसमें स्थापना करने हैं. ऐसा आकार रसकर मूल पदार्थोकी उसमें शााना कर हैं. या वादा कर उसने यह वह वस्तु है एसी बुद्धि उत्पन्न होती ही है. यह स्थापना सत्य समझना चाहिए,
नाम सत्य-जाति, द्रव्य, गुण, क्रिया इनकी अपेक्षाके बिना ही शब्दका पदार्थ के साथ संबंध कर देना वह नाम सत्य है, जैसे जीवनक्रिया अचेतन पदार्थ में न रहत हुए भी उसको जीव कहना. किसी पदार्थका इंद्र वगैरह नाम रखते समय इंद्रकी देवत्व जाति, परमश्वर्य संपन्नता वगैरह गुणोंका विचार न करके व्यवहार के लिए इंद्र ऐसा नाम रखनाः .
रूपसत्य-रूपशब्द प्रवृत्ति निमित्तका उपलक्षण है. जैसे कमलमें नीलगुणका प्रकर्ष देखकर उसको नीलकमल कहना. चंद्रमें सफेदपनाकी अधिकता देखकर उसको धवल कहना इत्यादिक उदाहरण रूपसत्यके समझ लेने चाहिये. '
प्रतीतिसत्य-किसी अन्य संबंधी पदार्थकी अपेक्षासे वस्तुस्वरूपका निर्णय करके वैसा कहना जैसा दीर्घ बस्तुको देखकर दुसरी वस्तु हस्ख कहना वगैरह.
संभावना सत्य-वस्तुका रैसी प्रवृत्ति नहीं होते हुये भी वैसी प्रयत्ति करनेकी उस पदार्थमें योग्यता हैं यह जान कर वैसी कल्पना करना जैसे यह अदमी अपनी दो भुजाओंसे समुद्रको तीर सकेगा ऐसा कहना यह