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भागधा
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प्रति जाना. कूदना वगैरह क्रियाओं में प्रवृत हुए प्राणिको भी काय गुप्ति है ऐसा मानना पडेगा परन्तु ऐसा माना नहीं जाता हैं.
यदि ' कामक्रियानिवृतिः ' अर्थात् शरीरकी क्रियाका त्याग करना कायगुप्ति हैं इतनाही लक्षण मानोगे तो मूर्हित होकर जो मनुष्य पड़ा है उसको भी काय मुक्ति है ऐसा मानना पडेगा. इस वास्ते व्यभिचार निवृति के लिए कायोत्सर्ग को कायगुप्ति मानना चाहिए और शरीर की क्रियानिवृत्ती को भी कायगुप्ति कहना चाहिए. इस विवेचना अभिप्राय इस प्रकार समझना चाहिए - कर्मग्रहण जिनसे होता है ऐसी संपूर्ण शरीर क्रियाओंका त्याग करना इसको कायगुप्ति कहते हैं तथा शरीरविषयक ममताका त्याग करना इसको भी कायगुप्ति कहते हैं. ऐसा इस गाथासूत्रका अभिप्राय हैं.
हिसाविकका त्याग करना भी काय गुप्ति है ऐसा जिनागममें कहा है प्राणिओं के प्राणोंका वध करना, न दी हुई चीज लेना अर्थात् चोरी करना, मैथुन क्रिया करना, शरीरसे परिग्रहोंका ग्रहण करना, इत्यादिक जो विशिष्ट क्रियायें उनका यहां काय शुद्धसे संग्रह करना चाहिये. कायिक क्रियाओंसे आत्माका संरक्षण करना कायगुप्ति है ऐसा आचार्यमहाराजने व्याख्यान किया है.
छेत्तस्स वदी यररस खाइया अहव होइ पायारो ॥
तह पावरस गिरोहों ताओ गुत्तीओ साहुस्स || १९८९ ॥ पुरस्य खातिका क्षेत्रस्य च यथा वृतिः ॥
तथा पापस्य संरोधे साधूनां गुप्तयो मत्ताः ॥ १२२९ ॥
विजयोदया—छेतस्स घड़ी क्षेत्रस वृतिः । नगरस्य खातिका अथवा प्राकारो भवति नगरस्य तथा पाचस्स निरोधो पापस्य निरोधोऽपायः । तानो सुतीओ ता गुप्तयः साधोः ॥
गुप्तीनां पापनिरोधोपायतां द्रढयति
मूळारा --- पावस्स गिरोधो यथा क्षेत्रादेर्मृगचोराद्यपायहेतुनिरोधे नृत्यादय उपायास्तथा पापनिवारणे मुने
वय इत्यर्थः ।
आश्वासः
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