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भूलाराधना
भावास
निवृत्ति होती है अर्थात् परिग्रहका त्याग करनेसे रागद्वेष नष्ट होते हैं। जिससे इंद्रियां अयोग्य कार्यमें प्रवृत्त । होती नहीं
सप्पबहुलम्मि रणे अमंतविजोसहो जहा पुरिसी ॥ होई दढमप्पमत्तो तह णिग्गंथो वि सिएस ॥ ११६९ ॥ विषयेभ्यो दुरंतेभ्यस्त्रस्यति ग्रंथवर्जितः ।।
अल्पमंत्रीषधो मर्त्यः सर्पेभ्य इव सर्वदा ।। १२०७ ॥ विजयोदया-सप्पबालम्मि सर्पबहुले रपणे अरण्य | अमतविज्झोसदो मंत्रेण, विघया औषधेन च रहितः पुमान् । दढमप्यमत्तो होदि नितरां अप्रमत्तो भवति । तथा निमेथोऽपि क्षायिकाद्वानकेवलज्ञानयथाश्यातचारित्रमंत्र. पिधौषधिरहितो चिपयारण्ये रागादिसर्पयाले सावधानोऽपि भवेत् ।।
निःमंगत्वस्याप्रमत्तवाहेतुत्वगाह -
मूलारा--- अरण्य । घिसएसु इंद्रियापु रागवेपलक्षणअनादरहितः । बाह्यद्रव्यं हि मासा स्वीकृतं रागदेपावृत्ति करिध्यतो गोहनी यमैग: महफारिकारणमिति नत्यागे ना म्यान । तदभावे च नापूर्वकर्मयंध इति नै यमेव प्रथमो मोक्षोपाय इति भावः ॥
अर्थ-जिसको सर्पविष दूर करनेकी विद्या, मंत्र और औषधिका ज्ञान नहीं है ऐसा मनुष्य जिसमें साका बहुत प्रचार है ऐसे अरण्यमें कारणवश प्राप्त होनपर बहुत सावधान रहकर सपोसे अपना बचाव करता है. वैसे क्षायिक सम्यग्दर्शन, केवलज्ञान, यथाख्यातचारिप, एतत्स्वरूपी मंत्र, विद्या और औषधिरहित निग्रंथ मुनि रागद्वेषादि साँसे भरे हुए पंचेंद्रिय विपयरूपी अरण्यमें सावधान रहते हैं. अभिमाय यह है कि, परिग्रहका त्याग करनेसे रागद्वेष नष्ट होते हैं और विषयाभिलापाका अभाव होता है.
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रागो हवे मण्णे विसए दोसो य होइ अमणुण्णे ॥ गंयच्चाएण पुणो रागहोसा हवे चत्वा ।। ११७. ॥
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